https://www.profitablecpmrate.com/gtfhp9z6u?key=af9a967ab51882fa8e8eec44994969ec Astrologer: गुरु ग्रह एक परिचय और लग्न योग के समय

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Wednesday, May 21, 2025

गुरु ग्रह एक परिचय और लग्न योग के समय

गुरु ग्रह एक परिचय और लग्न योग के समय , विवाह का योग जाने अपनी जन्म कुंडली से कब तक हो जाएगा और उपाय ..


गुरु ग्रह एक परिचय :


गुरु ( बृहस्पति ) सत्वगुण प्रधान, दीर्घ और स्थूल शरीर, कफ प्रकृति, पीट वर्ण किंतु नेत्र और शरीर के बाल कुछ भूरा पन लिए हुए, गोल आकृति, आकाश तत्त्व प्रधान, बड़ा पेट, ईशान ( पूर्वोत्तर ) दिशा का स्वामी शंख के समान गंभीर वाणी, स्थिर प्रकृति, ब्राह्मण एवं पुरुष जाती,  तथा धर्म ( आध्यात्म विद्या ) का अधिष्ठाता होने से इन्हें देवताओ का गुरु माना जाता है। 

देवता ब्रह्मा तथा अधिदेवता इंद्र है। ये मीठे रस एवं हेमंत ऋतू के अधिष्ठाता है। 

गुरु धनु एवं मीन राशियों के स्वामी है। ये कर्क राशि के 5 अंश पर उच्च के तथा मकर राशि के 5 अंश पर नीच के माने जाते है। 

गुरु बृहस्पति राशि चक्र की एक राशि में 13 महीनो में पूरा चक्र लगा लेते है।

गुरु से प्रभावित कुंडली के जातक के 16, 22, एवं 40 वे वर्ष में विशेष प्रभावकारी होते है। 

गुरु को 2, 5, 9, 10 एवं 11 वे भाव का कारक माना जाता है।




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गुरु के पर्यायवाची देवगुरु, बृहस्पति, वाचस्पति, मंत्री, अंगिरा, अंगिरस, जीव आदि।

कारकत्वादि विवेक-बुद्धि, आध्यात्मिक व् शास्त्रज्ञान, विद्या, पारलौकिकता, धन, न्याय, पति का सुख ( स्त्री की कुंडली में ), पुत्र संतति, बड़ा भाई, देव-ब्राह्मण, भक्ति, मंत्री, पौत्र, पितामह, परमार्थ, एवं धर्म के कारक है। 

इसके अतिरिक्त परोपकार, मन्त्र विद्या, वेदांत ज्ञान, उदारता, जितेन्द्रियता, स्वास्थ्य, श्रवण शक्ति, सिद्धान्तवादिता, उच्चाभिलाषी, पांडित्य, श्रेष्ठ गुण, विनम्रता, वाहन सुख, सुवर्ण, कांस्य, घी, चने, गेंहू, पीत वर्ण के फल, धनिया, जौ, हल्दी, प्याज-लहसुन, ऊन, मोम, पुखराज, आदि का विचार भी किया जाता है।

मनुष्य शरीर में चर्बी, कमर से जंघा तक, ह्रदय, कोष संबंधी, कान, कब्ज एवं जिगर संबंदी रोगों का विचार भी गुरु से किया जाता है।

कुंडली में गुरु यदि अशुभ राशि में अथवा अशुभ दृष्टि में हो तो उपरोक्त शरीर के अंगों में रोग की संभावनाएं रहती है।

इसके अतिरिक्त गुरु अशुभ होने की स्थिति में पैतृक सुख-सम्पति में कमी, नास्तिकता, संतान को या से कष्ट, उच्चविद्या में बाधा एवं असफलता एवं लड़को के विवाह में अड़चने आना जैसे अशुभ फल होते है।




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गुरु और शुक्र दोनों शुभ ग्रह है परंतु गुरु से पारलौकिक एवं आध्यात्मिक एवं शुक्र से सांसारिक एवं व्यवहारिक सुख अनुभूतियों का विचार किया जाता है।

बृहस्पति का शुभाशुभ फल

कुंडली के द्वादश भाव में शुभ गुरु  मेष, सिंह लग्न के जातक/जातिकाओ को द्वादश भावस्थ गुरु प्रायः शुभ तथा वृष, कन्या, धनु, मकर व् मीन लग्न के जातक / जातिकाओ को मिश्रित फलदायी रहता है।

शुभ गुरु के प्रभावस्वरूप जातक / जातिका अनेक बढ़ाओ के बाद भी उच्चशिक्षित, परोपकारी स्वभाव, धर्मपरायण, विदेश में विशेष सफल, भ्रमण प्रिय, ट्रांसपोर्ट आदि के कार्यो द्वारा लाभ पाने वाला, 42 वर्ष की आयु के पश्चात विशेष भाग्योदय, स्त्री एवं संतान का पूर्ण सुख, भूमि - वाहनादि साधनों से युत, आध्यत्म,ज्योतिष एवं गूढ़ विषयो में रुचि हो एवं शुभ कार्यो में खर्च करने वाला होता है।




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अशुभ गुरु मिथुन, कर्क, तुला, वृश्चिक व् कुम्भ लग्न के जातक / जातिका के लिए तथा गुरु यदि नीच, अस्त, अतिचारी या राहु, शनि, शुक्रादि ग्रहों से युत हो तो जातक अधार्मिक वृति वाला ,अविश्वाशी, यात्रा एवं भ्रमण में वृथा खर्च करने वाला, आय कम खर्च अधिक, उच्चशिक्षा में विघ्न - बाधाएं या अधूरी शिक्षा, शारीरिक कष्ट, आकस्मिक धन हानि, संतान को कष्ट एवं दाम्पत्य जीवन में भी अशांति रहती है।

लग्न अनुसार अशुभ गुरु 

इस लेख के माध्यम से हम लग्न के अनुसार अशुभ गुरु की चर्चा करेंगे जिससे आप स्वयं ही अपनी कुंडली में गुरु की स्थिति देख सके। 

इसमें आप केवल इस योग के आधार पर ही बिल्कुल शुभ या अशुभ न समझ लें अपितु अन्य योग भी देखें । 




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गुरु के साथ बैठे ग्रह को देखें तथा गुरु पर कौनसा ग्रह दृष्टि डाल रहा है ? 

यह देखें कि वह मित्र है अथवा शत्रु है। 

इसके बाद ही निष्कर्ष निकालें कि गुरु कितना अशुभ अथवा शुभ है।

मेष लग्न  इस लग्न का स्वामी मंगल है जो गुरु का मित्र है परन्तु फिर भी लग्न में तृतीय, षष्ठम व एकादश भाव में तो बहुत ही अशुभ फल देता है। 

अनभव में द्वितीय तथा आय भाव में भी अशुभ फल देखे गये हैं।

वृषभ लग्न  इस लग्न का स्वामी शुक्र है जो गुरु का परम शत्रु है, इस लिये गुरु के इस लग्न में अष्टम व दशम भाव में फिर भी कुछ फल मिल जाते हैं अन्यथा अन्य सभी भावों में अत्यधिक अशुभ होता है।

मिथुन लग्न  इस लग्न का स्वामी स्वयं बुध होता है, इसलिये गुरु यहां धन भाव ततीय, चतुर्थ भाव, षष्ठम, अष्टम, नवम भाव व द्वादश भाव में अशुभ फल देता है।

कर्क लग्न इस लग्न का स्वामी चन्द्र है जो गुरु का परम मित्र है फिर भी गुरु लग्न, तृतीय, षष्ठम, अष्टम, व व्यय भाव में अशुभ होता है।

सिंह लग्न इस लग्न का स्वामी सूर्य गुरु का मित्र है फिर भी गुरु धन भाव, पराक्रम भाव, सुख भाव, रोग भाव, सप्तम भाव, अष्टम भाव तथा व्यय भाव में अधिक अशुभ फल देता है।



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कन्या लग्न कन्या लग्न का स्वामी भी बुध होता है, इस लिये गुरु दशम भाव के अतिरिक्त प्रत्येक भाव में अशुभ फल देता है।

तुला लग्न इस लग्न का स्वामी शुक्र है जो गुरु का परम शत्रु है, इस लिये गुरु इस लग्न में प्रथम, तृतीय, षष्ठम, अष्टम, नवम तथा द्वादश भाव में विशेष अशुभ फल देता है।

वृश्चिक लग्न इस लग्न का स्वामी मंगल है जो गुरु का विशेष मित्र है फिर भी इस लग्न में गुरु अधिकतर भाव में अशुभ फल ही देता है जिसमें कि लग्न, तृतीय, षष्ठ, सप्तम, अष्टम, एकादश तथा द्वादश भावों में विशेष अशुभ होता है।

धनु लग्न  इस लग्न का स्वामी स्वयं गुरु है परन्तु तृतीय, षष्ठम, सप्तम, अष्टम तथा एकादश घर में अत्यधिक अशुभ फल देता है।

मकर लग्न इस लग्न का स्वामी शनि है, इस लिये गुरु इस लग्न में केवल लग्न दशम, पंचम तथा नवम भाव में कुछ शुभ फल देता है अन्यथा अन्य सभी भावों में बहुत ही अधिक अशुभ फल देते देखा गया है।

कुंभ लग्न इस लग्न का स्वामी शनि है, इस लिये गुरु इस लग्न में केवल प्रथम व दशम भाव के अतिरिक्त अन्य सभी भावों में अशुभ फल देता है।




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मीन लग्न इस लग्न का स्वामी भी स्वयं गुरु है परन्तु तृतीय, षष्ठम, अष्टम, एकादश तथा द्वादश भाव में अत्यधिक अशुभ फल देता है।

गुरु की महादशा का फल :

जन्मपत्रिका में गुरु यदि पीडित, अकारक, अस्त, पापी अथवा केन्द्राधिपति से दूषित हो तो इस की दशा में अग्रांकित फल प्राप्त होते हैं। 

यहां मैं पुनः कहता हु की यह फल देखने से पहले आप समस्त प्रकार से यह जांच कर लें कि आपकी
में गुरु की क्या स्थिति है ? 

यह फल आपको तभी प्राप्त होंगे जब गुरु उपरोक्त स्थिति में होगा। 

साथ ही यह भी देखें कि गुरु के साथ किस ग्रह की युति है या किस ग्रह की दष्टि है अथवा गुरु की राशि में कौन सा ग्रह विराजमान है ? 

शुभ ग्रह, लग्नेश या कारक ग्रह की युति अथवा दृष्टि होने पर गुरु के अशुभ फल में निश्चय ही कमी
आयेगी। 




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" जैसा मैंने गुरु के लिये कहा कि यह अपना फल अधिकतर शुभ ही देते है."

परन्तु किसी भी रूप से उपरोक्त स्थिति में होने पर इनके अशुभ फल का रौद्र रूप अच्छे से अच्छे व्यक्ति को भयभीत कर देता है। यह अपने कारकत्व भाव में अकेला होने पर कारकत्व दोष से दूषित होते हैं तथा केन्द्र में केन्द्राधिपति दोष से पीड़ित होते है। 

इस लिये यह इन स्थिति के अतिरिक्त पूर्ण रूप से पापी अथवा पीड़ित हो तो इनकी महादशा में तथा इसके साथ इनकी ही अन्तर्दशा में निम्नानुसार फल प्राप्त होते हैं।

मुख्यतः गुरु पत्रिका में वृषभ, मिथुन अथवा कन्या राशि में हो अथवा किसी नीच ग्रहके प्रभाव में हो अथवा गुरु की किसी राशि में कोई नीच या पापी ग्रह बैठा हो अथवा गुरु स्वयं नीचत्व को प्राप्त हो तो जातक को दुर्घटना, अग्नि भय, मानसिक कष्ट या प्रताड़ना, राजदण्ड, आकस्मिक पीड़ा अथवा किसी बड़ी चोरी से हानि का भय होता है। 

इस के अतिरिक्त गुरु किसी त्रिक भाव में हो अथवा त्रिक भाव के स्वामी के साथ हो तो जातक को अत्यन्त कष्ट प्राप्त होते हैं। 

इसमें भी यदि इन भावों का स्वामी कोई पाप ग्रह हो तो फिर अशुभ फल की कोई सीमा नहीं होती है। 
नीचे मैं कई स्थान पर दोनों ग्रह ( गुरु तथा जिसका प्रत्यन्तर हो ) के अशुभ योग होने पर अशुभ फल की चर्चा करूंगा। 

उसमें आप यह अवश्य देख लें कि उस स्थिति में कोई शुभ ग्रह प्रभाव दे रहा है ? 

यदि शुभ की दृष्टि अथवा युति हो तो अवश्य ही अशुभ फल में कमी आयेगी। 

आने वाली कमी का रूप शुभ ग्रह की शक्ति पर निर्भर करेगा। 

इसके अतिरिक्त गुरु की महादशा में गुरु का अन्तर शुभ फल नहीं देता है, इसमें यदि।

1  गुरु द्वितीय भाव में हो तो अवश्य ही राजकीय दण्ड अथवा आर्थिक हानि होती है।

2 गुरु तृतीय अथवा एकादश भाव में अकेला हो तो जातक को पश्चिम दिशा की यात्रा अथवा अन्य कष्ट होते हैं।

3 गुरु यदि किसी केन्द्र भाव में हो तो जातक को राजदण्ड अथवा उच्चाधिकारी के कोप के साथ शारीरिक कष्ट होते हैं तथा मान सम्मान में कमी अथवा संतान पक्ष से पीड़ा होती है।

4 गुरु किसी त्रिकोण में हो तो व्यक्ति को स्त्री वर्ग से कष्ट, राजकीय प्रताड़ना तथा कार्यों में अवरोध के साथ अग्नि या दुर्घटना भय होता है।

5 यदि गुरु किसी त्रिक भाव अर्थात् 6 - 8 अथवा 12 भाव में हो तो व्यक्ति को मानसिक कष्ट के साथ अन्य कष्ट भी प्राप्त होते हैं।

6 गुरु यदि तृतीय अथवा एकादश भाव में शनि के साथ हो तो अवश्य शुभ फल प्राप्त होते हैं। 

इस में भी यदि शनि लग्नेश हो तो फिर शुभ फल की कोई सीमा ही नहीं होती है।

7 गुरु के मारकेश होने पर अर्थात् द्वितीय अथवा सप्तम भाव का स्वामी होने पर जातक को स्वयं मृत्यु तुल्य कष्ट अथवा जीवनसाथी को कष्ट प्राप्त होते हैं।

गुरु की महादशा में अन्य ग्रहों की अंतर्दशा का फल :

गुरु ग्रह की महादशा के उपरोक्त फल गुरु की अन्तर्दशा में प्राप्त हो सकते हैं। 

परन्तु निम्न फल अन्य ग्रह की अन्तर्दशा में ही प्राप्त होते हैं। 

इन फलों का निर्धारण भी आप गुरु के साथ जिस भी ग्रह की अन्तर्दशा हो, उसके बल, उस पर अन्य ग्रह की युति या दृष्टि तथा उस ग्रह का शुभाशुभ देख कर करें।

गुरु में गुरु की अन्तर्दशा मेरे अनुभव में इस दशा में शुभ फल प्राप्त होते हैं। 

इसमें यदि किसी उच्च, मूलात्रकोण, लग्नेश अथवा शुभ ग्रह से द्रष्ट या युत हो तो शुभ फल में वृद्धि होती है। 

समाज में प्रतिष्ठा वृद्धि, परिवार में मांगलिक कार्य, सर्व सुविधा युक्त निवास की प्राप्ति, वाहन - आभूषण की प्राप्ति, प्रत्येक क्षेत्र में मान सम्मान होता जातक के आन्तरिक गुणों की वृद्धि होती है। 

आचार्यों से मेल - मिलाप अधिक होता है तथा मन की इच्छाओं की पूर्ति होती है। 

इसमें गुरु यदि कर्मेश अथवा भाग्येश या सुखेश के प्रभाव में हो तो जातक को संतान सुख के साथ आर्थिक लाभ की प्राप्ति भी होती है। 

गुरु यदि नीच का हो अथवा किसी दुःस्थान में बैठा हो तो अवश्य संतान अथवा जीवनसाथी की हानि, मान - सम्मान में कमी, सभी क्षेत्रों में दुःख व कष्ट तथा व्यापार अथवा कर्म क्षेत्र में हानि होती है।

गुरु में शनि की अन्तर्दशा इस दशा में कोई ग्रह यदि उच्च, मूलत्रिकोण अथवा शुभ ग्रह के प्रभाव में हो तो व्यक्ति को कर्मक्षेत्र में उन्नति, भूमि - भवन व वाहन लाभ, पश्चिम दिशा की यात्रा तथा अपने से उच्च लोगों से मेल - मिलाप अधिक होता है।
 
इसके अतिरिक्त कोई ग्रह नीच, अस्त, शत्रुक्षेत्री अथवा किसी त्रिक भाव में हो तो जातक में अवगुणों की वृद्धि होती है जिसमें लिंग अनुसार अवगुण आते हैं जैसे जातक पुरुष है तो शराब का सेवन आरम्भ कर देता है, वेश्यागमन करता है और स्त्री जातक होने पर परिवार में अलगाव, बुजुर्गों का अपमान जैसे कार्य करती है। 

इसके अतिरिक्त जातक को आर्थिक हानि, मानसिक कष्ट, जीवनसाथी को कष्ट, परिवार में किसी को पीडा, पशुओं को कष्ट, व्ययों में वृद्धि, नेत्र रोग अथवा संतान कष्ट के साथ सभी प्रकार के कष्ट प्राप्त होते हैं।

गुरु में बुध की अन्तर्दशा  इस दशा में दैवज्ञों के विचारों में भिन्नता है। 

एक वर्ग इस दशा को पूर्णतः शुभ बताता है तो दूसरा वर्ग इस दशा को बहुत ही अशुभ बताता है। 

यहां पर मैं अपने अनुभव के आधार पर इस दशा की चर्चा कर रहा है। 

किसी भी ग्रह के उच्च, मूलत्रिकोणी, मित्र क्षेत्री अथवा एक दूसरे से नवपंचम अथवा केन्द्र योग निर्मित करने पर व्यक्ति को चुनाव के माध्यम से किसी सभा की सदस्यता प्राप्त होती है, आर्थिक लाभ प्राप्त होता है। 

संतान अथवा उच्च विद्या प्राप्ति, व्यक्ति का देव पूजन के साथ धर्म में मन लगना तथा कर्मक्षेत्र में लाभ प्राप्त होता है। 

किसी ग्रह के नीच, अस्त, शत्रुक्षेत्री अथवा षडाष्टक योग निर्मित होने पर व्यक्ति को आर्थिक रूप से संकट में मद्यपान में रुचि, वेश्यागमन, जीवनसाथी मरण, कई प्रकार के रोग, समाज में सम्मान में कमी और किसी ग्रह के मारकेश होने पर मृत्युतुल्य कष्ट अथवा मरण होता है। 

यहां मैंने एक बात देखी है कि इसमें ग्रहों के अशुभ होने पर व्यक्ति की भाषा कुछ गन्दी हो जाती है। वह अपशब्दों का प्रयोग अधिक करता है।

गुरु में केतू की अन्तर्दशा  इस दशा में जातक को मिश्रित फलों की प्राप्ति होती है। 

गुरु अथवा केतू के शुभ, उच्च, मूलत्रिकोणी अथवा मित्रक्षेत्री होने पर जातक को धर्म के प्रति अत्यधिक रुचि, मन में शुभ विचार तथा अच्छे कार्यों से समाज में मान अधिक होता है। 

किसी ग्रह के त्रिक भावस्थ होने पर, नीच, अस्त, शत्रुक्षेत्री अथवा ग्रह की अन्य राशि में किसी पाप ग्रह का प्रभाव होने पर जातक के शरीर । 

अथवा शल्यक्रिया से कोई चिन्ह, कारावास भय, आर्थिक हानि, पारिवारिक सदस्यों को कष्ट, किसी गुरु समान व्यक्ति अथवा वृद्ध से विछोह होता है। 

गुरु लग्न में व केतू के नवम भाव में होने पर जातक का मन सन्यास की ओर होता है। 

गुरु से केतु के केन्द्र अथवा त्रिकोण में होने पर जातक को आर्थिक लाभ व व्यवसाय में उन्नति होती है। 

किसी का मारकेश होने पर मृत्यु भी सम्भव है।

गुरु में शुक्र की अन्तर्दशा  इस दशा में जातक को मिश्रित फल की प्राप्ति होती है, क्योंकि यह दोनों ही ग्रह शत्रु हैं। 

इस दशा में दोनों में से कोई भी ग्रह उच्च, मूलत्रिकोणी अथवा शुभ भाव में होने पर जातक को पारिवारिक सुख की प्राप्ति, आर्थिक लाभ, भौतिक सुख प्राप्त होते हैं। 

जातक तालाब, कुआँ आदि का निर्माण करवाता है, इसमें भी यदि कोई ग्रह किसी शुभ केन्द्रेश से युत हो तो जातक को और भी अधिक शुभ फल मिलते हैं। जातक को उच्च वाहन प्राप्ति, आभूषण व रत्नों की प्राप्ति होती है। 

जातक सात्विक जीवन व्यतीत करता है। 

किसी ग्रह के नीच, अस्त, शत्रुक्षेत्री, पाप प्रभाव, दुःस्थान में अथवा षडाष्टक योग निर्मित होने पर आर्थिक हानि, शारीरिक कष्ट, किसी भी प्रकार का बन्धन भय, भौतिक वस्तुओं की हानि, वैवाहिक जीवन से मन उच्चाटन परन्तु घर से बाहर सुख तलाशना जैसे फल प्राप्त होते हैं। 

यदि कोई ग्रह मारकेश हो तथा काल भी मारक हो तो जातक की नृत्यु भी सम्भव है।

गुरु में सर्य की अन्तर्दशा इस दशाकाल में जातक को शुभ फल अधिक प्राप्त होते है। 

ग्रह का उच्च, मूलत्रिकोणी, मित्रक्षेत्री अथवा शुभ भाव में होने पर जातक को उच्च पद की प्राप्ति, समाज में सम्मान वृद्धि, अचानक लाभ, वाहन प्राप्ति, सरकारी नौकरी, पुत्र प्राप्ति किसी महानगर में सर्वसुविधा सम्पन्न निवास प्राप्ति तथा शत्रु परास्त के साथ सभी जातक की इच्छानुसार कार्य करते हैं। 

किसी ग्रह के नीच, अशुभ भावस्थ अधिक पाप प्रभाव में अथवा षडाष्टक योग होने पर जातक का प्रत्येक क्षेत्र में अपमान शिरोरोग पाप कर्म में लीन, आत्म सम्मान की कमी, मन में घबराहट के साथ ज्वर बिगड जाना जैसे फल प्राप्त होते हैं। 

मारकेश होने पर मृत्यु अथवा मृत्युतुल्य कष्ट प्राप्त होते हैं।

गुरु में चन्द्र की अन्तर्दशा यह दशा जातक की अच्छी व्यतीत होती है। 

यदि कोई ग्रह उच्च, मूलत्रिकोणी, मित्रक्षेत्री अथवा शुभभाव या शुभ ग्रह के प्रभाव में हो अथवा दोनों का केन्द्र में होने पर जातक सत्यकार्य में लीन, आर्थिक लाभ, यश में वृद्धि, शत्रु हानि, परिवार वृद्धि अथवा कारोबार में लाभ व उन्नति होती है। 

किसी ग्रह का अशुभ प्रभाव में, नीच, अस्त, शत्रुक्षेत्री, किसी अशुभ भाव अथवा पाप प्रभाव में अथवा षडाष्टक योग होने पर जातक के मन में उदासीनता, अपमान, स्थान परिवर्तन, माता की मृत्यु अथवा कष्ट जैसे फल प्राप्त होते हैं।

गुरु में मंगल की अन्तर्दशा मेरे अनुभव में यह दशा भी जातक की अच्छी जाती है। 

यदि इनमें कोई ग्रह उच्च, मलत्रिकोणी, एक दुसरे से केन्द्र में, शुभ भाव, शुभ ग्रह के प्रभाव में होने पर जातक को भूमि - भवन लाभ, तीर्थयात्रा, नये कार्यो से यश प्राप्ति जैसे फल प्राप्त होते हैं, लेकिन इनमें किसी ग्रह के नीच, अस्त, शत्रुक्षेत्री, त्रिक भाव में अथवा अधिक पाप प्रभाव में होने पर जातक को भाई से विरोध अथवा वियोग, कोई दुर्घटना अथवा शल्य क्रिया, रक्तविकार, अचानक झगड़े, भूमि-भवन नाश, नेत्र रोग, अचानक शल्यक्रिया अथवा गुरु की मृत्यु सम्भव है। 

मंगल अथवा गुरु का मारकेश होने पर जातक को मृत्यु अथवा मृत्युतुल्य कष्ट प्राप्त होते हैं।

गुरु में राहू की अन्तर्दशा इस दशा में राहू यदि 3 - 6 - 11 अथवा 10 वें भाव में हो अथवा दोनों में से कोई भी उच्च, शुभ प्रभाव में हो तो जातक को राज्य सम्मान परन्तु इनमें से किसी ग्रह अचानक धन लाभ विदेश यात्रा, व्यापार में बढ़ोत्तरी होती है। 

परन्तु इसमे से किसी ग्रह का नीच, शत्रु क्षेत्री, पाप प्रभाव में अथवा षडाष्टक योग निर्मित करे तो व्यक्ति को शिरोरोग रोग अथवा पीडा, रोग से शरीर कमजोर होना, अचानक हानि, जेल यात्रा, विद्युत भय, अग्नि भय, सम्मान में हानि अथवा पद मुक्ति जैसे फल प्राप्त होते हैं।

गुरु का प्रत्येक भाव पर दृष्टि फल :

प्रत्येक ग्रह अपने घर से सातवें भाव को पूर्ण दृष्टि से देखता है। 

इसी आधार पर गुरु भी अपने भाव से सातवें भाव को पूर्ण दृष्टि से देखता है। 

इसके साथ ही गुरु अपने से पंचम व नवम भाव को भी पूर्ण दृष्टि से देखता है। 

हम यहां गरु की पूर्ण दृष्टि फल की चर्चा करेंगे।

प्रथम भाव पर  लग्न भाव पर गुरु के पूर्ण दृष्टि डालने से जातक गोरे रंग वाला, धार्मिक स्वभाव का, यश प्राप्त करने वाला, विद्वान तथा कुलीन होता है। 

वह जीवनसाथी के विषय में भी भाग्यशाली होता है। 

उसका जीवनसाथी बहुत ही अच्छे चरित्र का तथा प्रसन्न रहने वाला होता है।

द्वितीय भाव पर धन भाव पर गुरु की दृष्टि से जातक आर्थिक रूप से बहुत सक्षम होता है। 

वाणी भी उसकी मधुर होती है। 

वह सारा धन अपने पैतृक धन को गंवाने के बाद ही कमाता है। 

वह जब कमाना आरम्भ करता है तो फिर बहुत कमाता है। 

वह अपने मित्र वर्ग में प्रिय होता है लेकिन तब तक, जब तक कि वह अपने पिता की सम्पत्ति को उन पर खर्च करता है, लेकिन जब वह स्वयं मेहनत करता है तो फिर वह अपने मित्र वर्ग पर ध्यान नहीं देता है, क्योंकि वह अपनी मेहनत की कमाई को बर्बाद नही होने देना चाहता है। 

तब उसके मित्र भी उसका साथ छोड़ने लगते हैं।

तृतीय भाव पर इस भाव पर गुरु की दृष्टि से जातक के बड़े भाई आर्थिक रूप से सक्षम होते है। 

वह भी स्वयं बहुत पराक्रमी व भाग्यवान होता है। 

भाइयों के सुख से युत तथा अधिकतर प्रवास पर रहने वाला होता है। 

इस स्थिति में मैंने पाया कि उसके भाई जातक की अपेक्षा अधिक धनवान होते हैं। 

जातक को भी भाई से सुख तभी मिलता है जब गुरु पाप प्रभाव में न हो अन्यथा जातक के अपने भाइयों से मतभेद रहते हैं।

चतुर्थ भाव पर  इस भाव पर गुरु की दृष्टि के प्रभाव से जातक बहुत भाग्यशाली होता है। 

वह उच्च वाहन से युक्त होता है, भूमि-भवन का लाभ भी प्राप्त करता है तथा अपने माता - पिता को भी बहुत सम्मान देता है। 

शिक्षा भी अच्छी प्राप्त करता है। 

इस योग पर मेरे शोध के आधार पर बाकी सारी बातें तो ठीक होती हैं लेकिन जातक अपने माता - पिता को नहीं केवल अपनी माता को सम्मान देता है। पिता से तो मानसिक मतभेद होते हैं। 

वह शिक्षा के क्षेत्र में कम ही चल पाता है अर्थात वह कम शिक्षा ग्रहण कर पाता है।

पंचम भाव पर इस भाव पर गुरु की दृष्टि से जातक धनवान, ख्याति प्राप्त करने वाला, पांच पुत्र वाला तथा ऐश्वर्ययुक्त होता है। 

जातक विद्या के क्षेत्र में भी नाम  कमाता है। 

वह बहुत विद्वान होता है तथा व्याख्याता के रूप में ख्याति अर्जित करता है। 

यहां पर मैंने अनुभव किया है कि जातक संतान के मामले में दुर्भाग्यशाली होता है। 

जैसा लिखा है कि पांच पुत्रों का पिता होता है लेकिन मैंने देखा है कि इस गुरु का जातक पुत्र संतान के लिये तरस जाता है। 

यदि जीवनसाथी की पत्रिका के आधार पर पुत्र संतान हो तो अलग बात है। 

इसके साथ ही उसे धन व संतान में से किसी एक का ही सुख प्राप्त होता है।

षष्ठ भाव पर इस घर पर गुरु की दृष्टि से ज्योतिषीय ग्रन्थों के आधार पर जातक चतुर, धूर्त स्वभाव का, सदैव किसी व्याधि से ग्रस्त रहने वाला, अपने धन कोनष्ट करने वाला तथा क्रोधी स्वभाव का होता है। 

मेरे शोध के अनुसार ऐसा जातक निरोगी. अपने शत्रुओं का नाश करने वाला तथा स्वाभिमानी भी होता है।

सप्तम भाव पर  इस भाव को जब गुरु देखता है तो जातक सुन्दर होने के साथ धनवान, यश प्राप्त करने वाला तथा भाग्यशाली होता है। 

मेरे अनुभव में ऐसा जातक बहुत ही व्यावहारिक तथा वैवाहिक जीवन का पूर्ण आनन्द लेने वाला होता है लेकिन इस भाव पर सूर्य की दृष्टि नहीं होनी चाहिये। जातक कुछ व्यभिचारी होता है।

अष्टम भाव पर  इस भाव पर गुरु की दृष्टि से जातक दीर्घायु होता है लेकिन उसे आठवें वर्ष में मृत्युतुल्य कष्ट प्राप्त होता है। 

ऐसे जातक को 24 वर्ष से 27 वर्ष की आयु में विशेष ध्यान रखना चाहिये क्योंकि इस गुरु के रत्ती भर भी पाप प्रभाव में होने से जातक को राजदण्ड अथवा कारावास का भय होता है। 

उसके ऊपर ऐसे आक्षेप लगते हैं कि जो काम उसने किया ही नहीं होता है उसका भी दण्ड भोगना पड़ता है।

नवम भाव पर इस भाव पर गुरु की दृष्टि के प्रभाव से जातक भाग्य तथा धर्म में रुचि रखने वाला होता है। 

ऐसा जातक शास्त्रों को जानने वाला, अच्छे कुल का, दान करने में अग्रणी तथा अच्छी संतान से युक्त होता है। 

यदि गुरु के साथ केतु की भी दृष्टि हो तो जातक सन्यास में रुचि रख सकता है । 

इस के साथ ही जातक को अचानक ऐसे लाभ प्राप्त होते हैं जिसकी उसे आशा न हो।

दशम भाव पर कर्म भाव पर गुरु की दृष्टि से जातक राज्य से लाभ के साथ सम्मान भी प्राप्त करता है तथा पूर्णतः सुखी, धन, यश व संतान पक्ष से भी सुखी रहता है। 

वह भूमि व वाहन सुख भी भोगता है। 

इस गुरु पर मैंने जो शोध किया है उसमें जातक यदि भूमि अथवा भवन अपने नाम से रखता है तो वह शीघ्र ही उनसे हाथ धो बैठता है। 

वाहन सुख तो उसे अवश्य मिलता है परन्तु वाहन सरकारी होता है। 

यहां पर जातक अपने पिता का बहुत सम्मान करता है। 

वह जो भी लाभ प्राप्त करता है वह सब उसे पिता के माध्यम से ही मिलता है।

एकादश भाव पर आय भाव को गुरु यदि पूर्ण दृष्टि से देखे तो जातक अपने जीवन में बहुत धन कमाता है। 

जातक विद्वान होता है एवं एकाधिक पुत्रों का पिता व दीर्घायु प्राप्त करता है, साथ ही कला प्रिय भी होता है। 

मेरे शोध के अनुसार यहां पर उसको संतान की बीमारी पर अधिक धन खर्च करना पड़ता है। 

वह विद्या भी कम ही ग्रहण कर पाता है लेकिन धन बहुत कमाता है। 

उसे अपने बड़े भाई से ही लाभ प्राप्त होता है।

द्वादश भाव पर इस भाव पर गुरु की दृष्टि से जातक अत्यधिक खर्चीले स्वभाव का होता है तथा मानसिक समस्याओं से ग्रस्त रहता है। 

शायद इसी कारण वह सदैव दुःखी नजर आता है। 

इस गुरु की दृष्टि पर मैंने जो शोध किया है उसमें जातक खर्चीला तो होता ही है साथ ही उसका व्यय बीमारी पर अधिक होता है। 

वह नींद की परेशानी से ग्रस्त रहता है। उसे शारीरिक सुख कम मिलता है। 

उसको गुप्त शत्रु अधिक हानि देते हैं तथा शत्रु भी उसके अपने ही होते हैं।

गुरु के द्वारा होने वाले रोग :

गुरु एक आकाश तत्वीय ग्रह है। 

गुरु का हमारे शरीर में चरबी, उदर, यकृत, त्रिदोष में विशेषकर कफ पर तथा रक्त वाहिनियों पर अधिकार रहता है। 

गुरु को ज्योतिष में संतानकारक ग्रह माना गया है। 

जिनकी पत्रिकाओं में गुरु शुभ स्थिति में होता है, वह जातक सदैव इन रोगों से दूर रहता है। 

वह अच्छे विचार का, शारीरिक रूप से हृष्ट-पुष्ट तथा मानसिक रूप से बहुत बली होता है। 

पत्रिका में गुरु यदि पापी अथवा किसी पाप ग्रह से पीड़ित हो तो जातक इन रोगों के अतिरिक्त कर्ण व दंत रोग, अस्थि मज्जा में विकार, वायु विकार, अचानक मूर्छा आ जाना, ज्वार, आंतो की शल्य क्रिया, रक्त विकार के साथ मानसिक कष्ट तथा ऊंचे स्थान से गिरने का भय होता न इन रोगों के साधारणतः गुरु के 4 - 6 - 8 अथवा 12 वें भाव में होने पर गोचरवश इन भावों में आने पर ही होने की सम्भावना अधिक होती है। 

इस के साथ ही ऐसा भी आप न समझें कि यदि आपकी पत्रिका में गुरु पापी है तो यही रोग होंगे। 

रोगों में मुख्य बात यह भी होती है कि गुरु किस भाव किस राशि में स्थित है ? 

यहा पर हम पत्रिका में गुरु किस राशि में होने पर की सम्भावना अधिक होती है, इसकी चर्चा करेंगे। 

आप अपनी पत्रिका में पापी होने पर तुरन्त ही इस निर्णय पर न पहुंच जायें कि आपको यह रोग दोगा आप किसी भी निष्कर्ष पर जाने से पहले अपनी पत्रिका में अन्य योग अवश्य ही होगा, आप किसी भी
भी देख लें।

मेष राशि  में गुरु के होने पर जातक को शिरो रोग अधिक होते हैं। 

यदि इस योग में गुरु पर मंगल अथवा केतू की दृष्टि हो तो किसी दुर्घटना में सिर में बड़ी चोट का योग बन सकता है।

वृषभ राशि में गुरु के प्रभाव से जातक को मुख, कण्ठ, श्वसन तंत्रिका तथा आहार नली में संक्रमण का भय होता है। 

यदि गुरु लग्न में इस राशि में हो तो व्यक्ति के जीवनसाथी को मूत्र संस्थान का संक्रमण तथा स्वयं को उदर विकार की सम्भावना होती है। 

गुरु के पीड़ित अवस्था में ही यह रोग होते हैं, लेकिन मेरे अनुभव में गुरु पीड़ित हो अथवा नहीं, लेकिन इस राशि में वह वाणी विकार के साथ मुख रोग अवश्य देता है।

मिथुन राशि में गुरु व्यक्ति के कंधों व बांहों पर अधिक कष्ट देता है। 

बुध भी यदि पीड़ित हो तो त्वचा विकार तथा रक्त विकार का योग अधिक बन जाता है। 

यदि गुरु अथवा बुध पर कोई पाप ग्रह का प्रभाव हो तो जातक के 32वें वर्ष में किसी दुर्घटना में हाथ कटने का योग भी बन जाता है। 

यहां पर गुरु का बहुत ही अधिक पीड़ित तथा बुध का लग्नेश न होने पर ही यह योग घटित होता है।

कर्क राशि  में गुरु के होने पर जातक को फेफड़ों के रोग, छाती तथा पाचन क्रिया पर असर आता है। 
मैंने देखा है कि यदि गुरु अधिक पीड़ित हो तथा चन्द्र के साथ चतुर्थ भाव व उसका स्वामी भी पीड़ित हो तो जातक कम आयु से ही रक्तचाप का रोगी तथा हृदयाघात का योग अवश्य बनता है। 

यदि लग्न भी कर्क ही हो तो जातक मानसिक कष्ट अधिक पाता है। 

उसे खाने - पीने के मामले में सावधानी रखनी चाहिये। 

अगर केवल चन्द्र व गुरु ही पीड़ित हों तो जातक को गर्मी के मौसम में शरीर में पानी की कमी के कारण कुछ समय अस्पताल में बिताना पड़ता है। 

इस लिये ऐसे जातकों को गर्मी के मौसम में पानी का सेवन अधिक करना चाहिये अन्यथा उसको गर्मी के कारण अचानक मूर्छा आ सकती है।

सिंह राशि में यदि गुरु है तो जातक को उदर विकार के साथ हृदयाघात का भी भय रहता है तथा गर्मी में ऐसे जातक को भी उपरोक्त समस्या आ सकती।

कन्या राशि  में गुरु के होने पर व्यक्ति आंतों के संक्रमण तथा पेट में जलन से अधिक परेशान रहता है। 

यदि मंगल की दृष्टि हो तो जातक को आंतों की भी क्रिया अथवा अपेन्डिक्स जैसे आपरेशन भी हो सकते हैं। 

यदि गुरु के साथ शुक्र भी विराजमान हो तो नपुंसकता अथवा शीघ्रपतन का भय रहता है। 

यदि शनि की दृष्टि आये तो भी यह रोग तो होना ही है।

तुला राशि  में गुरु मूत्र विकार, जनन अंग, गुदा रोग तथा कमर के दर्द परेशान करता है। 

जातक को शीघ्रपतन का रोग अधिक होता है। 

यहां पर मेरा अनुभव है कि इस राशि में गुरु यह रोग देता अवश्य है लेकिन अधिक बली होने की स्थिति में, गुरु यदि सामान्य बली है तो यह रोग कम होते हैं । 

अगर लग्न भी तुला है तो फिर गुरु जितना कम बली होगा, जातक के लिये उतना ही अच्छा है। 

यदि किसी उपरोक्त स्थिति में रोग हो तो वह किसी के भी कहने से गुरु रत्न को धारण न करे
अन्यथा इन रोगों को तो बल मिलेगा ही साथ ही अस्थि भंग का भी योग निर्मित होगा। इस स्थिति में गुरु को पूजा - पाठ से शान्त करना उचित होता है, क्योंकि इस लग्न में गुरु जितना अधिक कमजोर होगा, जातक को उतना ही अधिक लाभ मिलेगा।

वृश्चिक राशि में गुरु के होने पर व्यक्ति का पाचन संस्थान खराब रहता है। 

मुख्यत: कब्ज अधिक होती है। 

खट्टी डकार, आहार नली में जलन भी रहती है। 

गुदा रोग भी अधिक होते हैं। 

गुदा रोग भी कब्ज के ही कारण होते हैं। 

यदि मंगल की दृष्टि यहां हो तो फिर गुदा की दो बार शल्य क्रिया तो सामान्य बात है।

धनु राशि में गुरु कमर से निचले हिस्से में अधिक समस्या देता है जिसमें दर्द, स्नायु विकार अथवा संधिवात जैसे रोग होते हैं। 

इस राशि में गुरु यदि लग्न भाव में होता है तो समस्या और अधिक गम्भीर होती है, हालांकि गुरु यहां लग्नेश होता है  लेकिन फिर भी वह यदि किसी दुःस्थान में है तो जातक बहुत शारीरिक कष्ट उठाता
है। 

ऐसे जातकों को खानपान सादा तथा कम करना चाहिये।

मकर राशि में गुरु जातक को कमर तथा पैरों के दर्द से जीवन भर समस्या देता है। 

उसे दीर्घकालीन रोग होते हैं तथा उसके घुटने तो 30 वर्ष की आयु से ही खराब होने लगते हैं। 

स्नायुविकार का योग भी होता है। 

यदि शनि की यहां दृष्टि हो तो रोग कम होते हैं लेकिन पीड़ा तो झेलनी ही होती है।

कुंभ राशि भी शनि की राशि है। 

गुरु के इस राशि में होने पर जातक का कमर से नीचे का हिस्सा बहुत ही कमजोर होता है। 

उसे उदर रोग व वायु विकार के सा?




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विवाह का योग जाने अपनी जन्म कुंडली से कब तक हो जाएगा और उपाय ..


विवाह का योग जाने अपनी जन्म कुंडली से कब तक हो जाएगा और उपाय .....

सप्तमेश एवं पंचमेश एक साथ हो तो प्रेम विवाह का योग बनता है ।

इस कुंडली में सप्तमेश द्वितीय भाव में स्वराशि में विराजमान है 

एवं उसके साथ पंचमेश शनि भी विराजमान है । 

परंतु यहाँ एक समस्या है । मंगल और शनि जब भी एक साथ विराजमान होते हैं तो इसे अच्छा योग नहीं माना जाता है ।

कई ज्योतिष ग्रंथों में इसे विस्फोटक योग बोला गया है । 

यहां पंचमेश और सप्तमेश का संबंध

तो हो गया परंतु शनि मंगल का योग अच्छा नहीं होने के कारण इसका फल प्राप्त नहीं हुआ । 

एक योग को सभी लग्न की कुंडलियों में माना नहीं जा सकता दूसरी बात सप्तम भाव में राहु विराजमान है एवं केतु की दृष्टि है

यह वैवाहिक जीवन के सुख में बहुत ज्यादा परेशानी उत्पन्न कर रहा है जिसके कारण प्रेम विवाह तो क्या सामान्य विवाह भी होने में बहुत ज्यादा समस्या होती है । 

इनका विवाह हुआ एवं विवाह होने के बाद तलाक हो गया । 

शनि यदि सप्तम भाव के स्वामी के साथ संबंध बनाते हैं एवं सप्तमेश तथा शनि में शत्रुता होती है तब विवाह में बहुत ज्यादा विलंब हो जाती है । 

कई लोगों की 40 वर्ष तक भी विवाह नहीं हो पाता है । 

और धीरे - धीरे विवाह की इच्छाएं समाप्त हो जाती हैं । 

इस कुंडली में सप्तमेश शनि के साथ विराजमान है सप्तम भाव में राहु विराजमान है उस पर केतु की दृष्टि है । 

अर्थात शनि राहु केतु के प्रभाव के कारण वैवाहिक जीवन में समस्या हुई ।

इसलिए बचपन में ही जन्म कुंडली विश्लेषण कर ऐसे योग होने पर जो ग्रह परेशानी उत्पन्न कर रहे हैं उनका उपाय पहले से ही प्रारंभ करना चाहिए ।

और अधिक जानकारी जन्म कुंडली परामर्श सलाह उपाय विधि प्रयोग कुंडली विश्लेषण वास्तु हस्तरेखा अंक ज्योतिष एवं रत्ना यंत्र मंत्र तंत्र से जुड़ा हुआ परामर्श के लिए संपर्क करें ...
ઓન લાઈન ઑફ લાઈન જ્યોતિષી 
પંડારામા પ્રભુ રાજ્યગુરુ 
Web: sarswatijyotish.com 

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