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Sunday, May 25, 2025

भारतीय वैदिक ज्योतिष मे रोहिणी नक्षत्र के जातक/कैसे शुरू हुए कृष्ण और शुक्ल पक्ष/भारतीय वैदिक ज्योतिष मे कृतिका नक्षत्र के जातक

भारतीय वैदिक ज्योतिष मे रोहिणी नक्षत्र के जातक  , कैसे शुरू हुए कृष्ण और शुक्ल पक्ष , भारतीय वैदिक ज्योतिष मे कृतिका नक्षत्र के जातक :


भारतीय वैदिक ज्योतिष मे रोहिणी नक्षत्र के जातक :


राशिफल में रोहिणी नक्षत्र 40.00 अंशों से 53.20 अंशों के मध्य स्थित हैं। रोहिणी के पर्यायवाची नाम हैं-विधि, विरंचि, शंकर अरबी में इसे अल्दे वारान कहते हैं।


रोहिणी नक्षत्र के साथ अनेक पौराणिक कथाएं जुड़ी हुई हैं। कहीं उसे कृष्ण के अग्रज बलराम की मां कहा गया है तो कहीं लाल रंग की गाय । 


उसे कश्यप ऋषि की पुत्री, चंद्रमा की पत्नी भी माना गया है।




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रोहिणी की आकृति स्थ की भांति आंकी गयी है। 

उसमें कितने तारे हैं, इस विषय में मतभेद हैं। 

सामान्यतः रोहिणी नक्षत्र में पांच तारों की स्थिति मानी गयी है। 

दक्षिण भारत के ज्योतिषी रोहिणी में बियालिस तारों की उपस्थिति मानते हैं। 

उनके लिए रोहिणी वट वृक्ष स्वरूप का है।


यह नक्षत्र वृष राशि ( स्वामी शुक्र ) के अंतर्गत आता है। 

रोहिणी के देवता ब्रह्मा हैं और अधिपति ग्रह-चंद्र।


गण: मनुष्य योनिः सर्प व नाड़ी: अंत्या चरणाक्षर हैं- 

ओ, वा, वी, वू रोहिणी नक्षत्र में जातक सामान्यतः छरहरे, आकर्षक नेत्र एवं चुम्बकीय व्यक्तित्व वाले होते हैं। 

वे भावुक हृदय होते हैं और अक्सर भावावेग में ही निर्णय करते हैं। 

उन्हें तुनुकमिजाज भी कहा जा सकता है और उनका हठ लोगों को परेशान कर देता है। 

उनमें आत्म लुब्धता की भावना भी होती हैं। 

वे औरों पर तत्काल भरोसा कर लेते हैं और धोखा भी खाते हैं। 

लेकिन यह सब उनकी सत्यनिष्ठता में कोई कमी नहीं लाता।


ऐसे जातक वर्तमान में ही जीते हैं, कल की चिंता से सर्वथा मुक्त उनका जीवन उतार-चढ़ाव से भरा रहता है। 

वे हर कार्य निष्ठा से संपन्न करना चाहते हैं, पर अधैर्य उन्हें कोई भी कार्य पूरा नहीं करने देता। 

उनकी ऊर्जा बंट सी जाती है। 

वे एक को साधने की बजाय सबको साधने की कोशिश करते हैं, लेकिन ऐसे जातकों को यह उक्ति याद रखनी चाहिए कि एक ही साधे सब सधे, सब साधे सब जाय! यदि वे अधैर्य त्याग कर संयमित होकर कार्य करें तो जीवन में यशस्वी भी हो सकते हैं।


युवावस्था उनके लिए सतत् संघर्ष लेकर आती है। 

आर्थिक समस्याओं के अतिरिक्त स्वास्थ्य की गड़बड़ी भी उन्हें परेशान किये रहती है। 

अड़तीस वर्ष की अवस्था के बाद ही जीवन में स्थिरता आती है।


ऐसे जातक माता के प्रति विशेष आसक्त होते हैं। 

मातृपक्ष से ही उन्हें लाभ भी होता है। 

पिता की ओर से उन्हें कोई विशेष लाभ नहीं होता ।


ऐसे जातकों में यह भी देखा गया है कि जरूरत पड़ने पर वे तमाम रीति - रिवाजों और मान्यताओं को तिलांजलि भी देते हैं। 

ऐसे जातकों का वैवाहिक जीवन भी विशेष सुखद नहीं बताया गया है।


रोहिणी नक्षत्र में जन्मे जातक रक्त संबंधी विकारों के शिकार हो सकते हैं- 

यथा रक्त का मधुमेह आदि । 

रोहिणी नक्षत्र में जन्मी जातिकाएं भी सुंदर एवं आकर्षक व्यक्तित्व वाली होती हैं। 

वे सद्-व्यवहार वाली होती हैं तथापि प्रदर्शन- प्रिय भी, रोहिणी नक्षत्र में जन्मे जातकों की तरह वे भी तुनुकमिजाजी के कारण दुःख उठाती हैं। 

वे व्यवहारिक होती हैं, अतः वे थोड़े से प्रयत्न से अपनी इस आदत पर काबू पा सकती हैं। 

ऐसी जातिकाएं प्रत्येक कार्य को भली भांति करने में सक्षम होती हैं। 

फलतः उनका पारिवारिक जीवन भी सुखी होता है। 

लेकिन पूर्ण वैवाहिक एवं पारिवारिक सुख प्राप्त करने के लिए उन्हें अपने ही स्वभाव पर अंकुश लगाने की सलाह दी जाती है। 

ऐसी जातिकाओं का स्वास्थ्य प्रायः ठीक ही रहता है।


रोहिणी नक्षत्र के प्रथम चरण का स्वामी मंगल, द्वितीय चरण का शुक्र, तृतीय चरण का बुध एवं चतुर्थ चरण का स्वयं चंद्र होता है।


क्रमशः... आगे के लेख मे मृगशिरा नक्षत्र के विषय मे विस्तार से वर्णन किया जाएगा।


कैसे शुरू हुए कृष्ण और शुक्ल पक्ष :


पंचांग के अनुसार हर माह में तीस दिन होते हैं और इन महीनों की गणना सूरज और चंद्रमा की गति के अनुसार की जाती है। 

चन्द्रमा की कलाओं के ज्यादा या कम होने के अनुसार ही महीने को दो पक्षों में बांटा गया है जिन्हे कृष्ण पक्ष या शुक्ल पक्ष कहा जाता है।

पूर्णिमा से अमावस्या तक बीच के दिनों को कृष्णपक्ष कहा जाता है, वहीं इसके उलट अमावस्या से पूर्णिमा तक का समय शुक्लपक्ष कहलाता है। 

दोनों पक्ष कैसे शुरू हुए उनसे जुड़ी पौराणिक कथाएं भी हैं।


कृष्ण और शुक्ल पक्ष से जुड़ी कथा :


इस तरह हुई कृष्णपक्ष की शुरुआत :


पौराणिक ग्रंथों के अनुसार दक्ष प्रजापति ने अपनी सत्ताईस बेटियों का विवाह चंद्रमा से कर दिया। 

ये सत्ताईस बेटियां सत्ताईस स्त्री नक्षत्र हैं और अभिजीत नामक एक पुरुष नक्षत्र भी है। 

लेकिन चंद्र केवल रोहिणी से प्यार करते थे। 

ऐसे में बाकी स्त्री नक्षत्रों ने अपने पिता से शिकायत की कि चंद्र उनके साथ पति का कर्तव्य नहीं निभाते। 

दक्ष प्रजापति के डांटने के बाद भी चंद्र ने रोहिणी का साथ नहीं छोड़ा और बाकी पत्नियों की अवहेलना करते गए। तब चंद्र पर क्रोधित होकर दक्ष प्रजापति ने उन्हें क्षय रोग का शाप दिया। 

क्षय रोग के कारण सोम या चंद्रमा का तेज धीरे-धीरे कम होता गया। 

कृष्ण पक्ष की शुरुआत यहीं से हुई। 


ऐसे शुरू हुआ शुक्लपक्ष :


कहते हैं कि क्षय रोग से चंद्र का अंत निकट आता गया। 

वे ब्रह्मा के पास गए और उनसे मदद मांगी। तब ब्रह्मा और इंद्र ने चंद्र से शिवजी की आराधना करने को कहा। 

शिवजी की आराधना करने के बाद शिवजी ने चंद्र को अपनी जटा में जगह दी। 

ऐसा करने से चंद्र का तेज फिर से लौटने लगा। 

इससे शुक्ल पक्ष का निर्माण हुआ। 

चूंकि दक्ष ‘प्रजापति’ थे। 

चंद्र उनके शाप से पूरी तरह से मुक्त नहीं हो सकते थे। 

शाप में केवल बदलाव आ सकता था। 

इस लिए चंद्र को बारी-बारी से कृष्ण पक्ष और शुक्ल पक्ष में जाना पड़ता है। 

दक्ष ने कृष्ण पक्ष का निर्माण किया और शिवजी ने शुक्ल पक्ष का।


कृष्ण पक्ष और शुक्ल पक्ष के बीच अंतर :


जब हम संस्कृत शब्दों शुक्ल और कृष्ण का अर्थ समझते हैं, तो हम स्पष्ट रूप से दो पक्षों के बीच अंतर कर सकते हैं। 

शुक्ल उज्ज्वल व्यक्त करते हैं, जबकि कृष्ण का अर्थ है अंधेरा।


जैसा कि हमने पहले ही देखा, शुक्ल पक्ष अमावस्या से पूर्णिमा तक है, और कृष्ण पक्ष, शुक्ल पक्ष के विपरीत, पूर्णिमा से अमावस्या तक शुरू होता है।


कौन सा पक्ष शुभ है ?


धार्मिक मान्यता के अनुसार, लोग शुक्ल पक्ष को आशाजनक और कृष्ण पक्ष को प्रतिकूल मानते हैं। 

यह विचार चंद्रमा की जीवन शक्ति और रोशनी के संबंध में है।


भारतीय वैदिक ज्योतिष शास्त्र के अनुसार शुक्ल पक्ष की दशमी से लेकर कृष्ण पक्ष की पंचम तिथि तक की अवधि ज्योतिषीय दृष्टि से शुभ मानी जाती है। 

इस समय के दौरान चंद्रमा की ऊर्जा अधिकतम या लगभग अधिकतम होती है - जिसे ज्योतिष में शुभ और अशुभ समय तय करने के लिए महत्वपूर्ण माना जाता है।


भारतीय वैदिक ज्योतिष मे कृतिका नक्षत्र के जातक :


कृत्तिका नक्षत्र राशि फल में 26.40 से 40.00 अंशों के मध्य स्थित है। 

कृत्तिका के पर्यायवाची नाम हैं- हुताशन, अग्नि, बहुला अरबी में इसे अथ थुरेया' कहते हैं। 

इस नक्षत्र में छह तारों की स्थिति मानी गयी है। देवता अग्नि एवं स्वामी गुरु सूर्य है। 

कृत्तिका प्रथम चरण मेष राशि ( स्वामी : मंगल ) एवं शेष तीन चरण वृष राशि ( स्वामी: शुक्र ) में आते हैं।


गणः राक्षस, योनिः मेष एवं नाड़ी: अंत है। 

चरणाक्षर हैं: अ, इ, उ, ए ।


कृत्तिका नक्षत्र में जन्मे जातक मध्यम कद, चौड़े कंधे तथा सुगठित मांसपेशियों वाले होते हैं। 

ऐसे जातक अत्यंत बुद्धिमान, अच्छे सलाहकार, आशावादी कठिन परिश्रमी तथा एक तरह हठी भी होते हैं। 

वे वचन के पक्के तथा समाज की सेवा भी करना चाहते हैं। 

वे येन-केन-प्रकारेण अर्थ, यश नहीं प्राप्त करना चाहते, न तो अवैध मागों का अवलंबन करते हैं, न किसी की दया' पर आश्रित रहना चाहते हैं। 

उनमें अहं कुछ अधिक होता हैं, फलतः वे अपने किसी भी कार्य में कोई त्रुटि नहीं देख पाते। 

वे परिस्थितियों के अनुसार ढलना नहीं जानते। 

तथापि ऐसे जातक का • सार्वजनिक जीवन यशस्वी होता है। 

लेकिन अत्यधिक ईमानदारी भरा व्यवहार उनके पतन का कारण बन जाता है।


ऐसे जातकों को सत्तापक्ष से लाभ मिलता है। 

वे चिकित्सा या इंजीनियरिंग के अलावा ट्रेजरी विभाग में भी सफल हो सकते हैं, विशेषकर सूत निर्यात, औषध या अलंकरण वस्तुओं के व्यापार में सामान्यतः जन्मभूमि से दूर ही उनका उत्कर्ष होता है।


ऐसे जातकों का वैवाहिक जीवन सुखी बीतता है। 

पत्नी गुणवती, गृह कार्य में दक्ष तथा सुशील होती है। 

प्रायः उनकी पत्नी उनके परिवार की पूर्व परिचित ही होती है। 

प्रेम विवाह के भी सकेत मिलते हैं।


ऐसे जातकों का स्वास्थ्य भी सामान्यतः ठीक ही रहता है तथापि उन्हें दंत-पीडा, नेत्र-विकार, क्षय, बवासीर आदि रोग जल्दी ही पकड़ सकते हैं।


कृतिका नक्षत्र में जन्मी जातिकाएं मध्यम कद की बहुत रूपवती तथा साफ-सफाई पसंद होती हैं। 

वे अनावश्यक रूप से किसी से दबना' पसंद नहीं करतीं, फलतः जाने-अनजाने उनका स्वभाव कलह पैदा करने वाला बन जाता है। 

उनमें संगीत, कला के प्रति रुचि होती है तथा वे शिक्षिका का कार्य बखूबी कर सकती हैं। 

कृत्तिका के प्रथम चरण में जन्मी जातिकाएं उच्च अध्ययन में सफल होती हैं तथा प्रशासक, चिकित्सक, इंजीनियर आदि भी बन सकती हैं। कृत्तिका नक्षत्र में जन्मी जातिकाओं का वैवाहिक जीवन पूर्णतः सुखी नहीं रह पाता। 

पति से विलगाव या कभी-कभी प्रजनन क्षमता की हीनता भी इसका एक कारण हो सकती है। 

कृत्तिका के विभिन्न चरणों के स्वामी इस प्रकार हैं: प्रथम एवं चतुर्थ चरण- गुरु, द्वितीय एवं तृतीय चरण-शनि।


क्रमशः... आगे के लेख मे रोहिणी नक्षत्र के विषय मे विस्तार से वर्णन किया जाएगा।

पंडारामा प्रभु राज्यगुरु ज्योतिषी 

Thursday, May 22, 2025

अश्विनी नक्षत्र में जन्मी जातिकाये मासिक कालाष्टमी

अश्विनी नक्षत्र में जन्मी जातिकाये मासिक कालाष्टमी 20 मई नियम एवं विधि


अश्विनी नक्षत्र में जन्मी जातिकाये :


अश्विनी नक्षत्र को सम्पूर्ण मेष राशि का प्रतिनिधित्व करने वाला नक्षत्र माना गया है। 





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मेष राशि का स्वामित्व मंगल को दिया गया है। 'जातक पारिजात' में कहा गया है।

अश्विनी नक्षत्र में जन्मी जातिकाओं में प्रायः उपरोक्त चारित्रिक विशेषताएं होती हैं। 

अश्विनी नक्षत्र में जन्मी जातिकाओं के व्यक्तित्व में एक चुम्बकीय आकर्षण होता है। 

जातकों की तुलना में उनके नेत्र मीन की भांति छोटे एवं चमकीले होते हैं।



अश्विनी नक्षत्र में जातिकाएं धैर्यवान, शुद्ध हृदय और मीठी वाणी की धनी होती हैं। 

वे परंपराप्रिय, बड़ों का आदर करने वाली तथा विनम्र भी होती हैं। 

ऐसी जातिकाओं में काम भावना कुछ प्रबल पायी जाती है।

ऐसी जातिकाएं यदि अच्छी शिक्षा या जाएं तो वे एक कुशल प्रशासक भी बन सकती हैं। 

लेकिन वे परिवार के लिए अपनी नौकरी त्यागने में भी नहीं हिचकतीं। 

परिवार का कल्याण, उसका सुख ही उनकी प्राथमिकता होती है।



विवाह कहा गया है कि ऐसी जातिकाओं का विवाह तेइस वर्ष के बाद ही करना चाहिए अन्यथा दीर्घ अवधि के लिए पति से विछोह या तलाक अथवा पति के चिरवियोग के भी फल बताये गये हैं।

संतानः ऐसी जातिकाओं को पुत्रों की अपेक्षा पुत्रियां अधिक होती हैं। 

वे अपनी संतान का पर्याप्त श्रेष्ठ रीति से पालन-पोषण करती हैं। 

एक फल यह कहा गया है कि यदि अश्विनी के चतुर्थ चरण में स्थित शुक्र पर चंद्रमा की दृष्टि पड़े अर्थात् चंद्रमा तुला राशि में हो तो संतानें तो अधिक होती हैं, पर बच कम पाती हैं।

स्वास्थ्यः ऐसी जातिकाओं का स्वास्थ्य प्रायः ठीक ही रहता है। 



जो भी व्याधियां होती हैं वे अनावश्यक चिता एवं मानसिक अशाति के कारण।

 ऐसी स्थिति निरंतर बनी रहने पर मस्तिष्क विकार की भी आशंका प्रबल रहती है। 

ऐसी जातिकाओं को रसोई घर में भोजन बनाते वक्त आग से कुछ ज्यादा सावधान रहने की चेतावनी भी दी जाती है। 

वे शीघ्र ही दुर्घटनाग्रस्त भी हो सकती हैं।

क्रमशः... 

आगे के लिख मे हम भरणी नक्षत्र के के जातको से जुड़े शुभाशुभ पहलुओं के विषय मे चर्चा करेंगे।


मासिक कालाष्टमी 20 मई नियम एवं विधि 


कालाष्टमी हिंदू त्योहार है जो भगवान भैरव को समर्पित है और हर हिंदू चंद्र माह में 'कृष्ण पक्ष अष्टमी तिथि' (चंद्रमा के घटते चरण के दौरान 8वें दिन) पर मनाया जाता है।


' पूर्णिमा ' ( पूर्णिमा ) के बाद ' अष्टमी तिथि ' ( 8 वां दिन ) भगवान काल भैरव को प्रसन्न करने के लिए सबसे उपयुक्त दिन माना जाता है। 

इस दिन हिंदू भक्त भगवान भैरव की पूजा करते हैं और उन्हें प्रसन्न करने के लिए व्रत रखते हैं। 

एक वर्ष में कुल 12 कालाष्टमी मनाई जाती हैं।


इनमें से 'मार्गशीर्ष' माह में पड़ने वाली जयंती सबसे महत्वपूर्ण है और इसे 'कालभैरव जयंती' के नाम से जाना जाता है । 

कालाष्टमी रविवार या मंगलवार को पड़ने पर भी अधिक पवित्र मानी जाती है, क्योंकि ये दिन भगवान भैरव को समर्पित हैं।


कालाष्टमी पर भगवान भैरव की पूजा का पर्व देश के विभिन्न हिस्सों में पूरे उत्साह और भक्ति के साथ मनाया जाता है।


कालाष्टमी व्रत का नियम


आदरणीय प्यारे मित्रों तथा गुरुजनों.... इससे पहले मैं एक पोस्ट किया था...की "मासिक कालाष्टमी व्रत रखने वाला मनुष्य भैरव जी का विशेष कृपापात्र होता है । 

किसीभी प्रकार का भैरवमंत्र उसके लिए सिद्धिप्रद रहता है ।" 


मासिक कालाष्टमी पालन हेतु सर्वप्रथम गंगा नदी अथवा किसी पवित्र नदी में इसके अभाव में कहीं पर भी शुद्ध जल में स्नान करलें । 

उसके पश्चात या तो किसी भैरव मंदिर में जाकर या फिर घर में भैरव जी के नाम से अखंडित सुपारी स्थापित करके । 

पूजन से पहले अपना नाम गोत्र किस क्षेत्र में रहते हैं आदि बोलते हुए..... कहिए कि है प्रभु मैं आज अमुक महीना की कृष्ण पक्ष की अष्टमी तिथि... में... आप श्री भैरवपरमात्मा देवता की प्रसन्नता हेतु आशीर्वाद प्राप्ति हेतु अखंड उपवास युक्त व्रत का संकल्प लेता हूं ।

( गर्भवती, बालक, वृद्ध,तथा क्षुधातुर "अखंड उपवास युक्त व्रत" ना बोलकर "श्री भैरव प्रसाद समेत नक्तव्रत" वोलें )  । 

हालांकि कहीं-कहीं पर यह अवश्य लिखा गया है कि "नक्तव्रत" यानी कि दिनभर उपवास रहकर अगर रात्रि में भोजन करेंगे तो.... दिनभर उपवास रहना अनिवार्य हो जाता है । 

पर वर्तमान की स्थिति परिस्थिति आदि को देखकर मैं आप लोगों को यह सुझाव दे रहा हूं कि.... अगर आप दिनभर उपवास नहीं रह पाते हैं तो एक काम कीजिए जो भी फल आप लाए होंगे उसे सबको आप भैरव जी को भोग के रूप में चढ़ा दीजिएगा..... तथा भोजन के रूप में नहीं अपितु भोग के रूप में उसे ग्रहण कर लीजिएगा । 

इस प्रकार आपका संकल्प भी नहीं टूटेगा । 

और आप दुर्बल भी नहीं हो जाएंगे । 

सुबह के समय मध्यान्ह काल में तथा रात्रि काल में भैरव जी का नाना विध उपचार से पूजन करने के पश्चात.... उन्हें भोग अवश्य लगाएं। 

सुबह के समय विभिन्न प्रकार के खाने योग्य फल आदि को भोग के रूप में अर्पित करें । 

मध्यान्न काल में भी फल का ही भोग लगाएं । 

रात्रि काल में पूड़ी , आटे तथा गुड से बनी पदार्थ , उड़द की दाल तथा गुड़ से बनी पदार्थ, आदि का भोग लगाएं। 

रात्रि काल में भोग अर्पित करने से पूर्व कांसे की पात्र में नारियल का जल डालकर उस पात्र में एक जायफल डाल दें.... तथा इसे भैरव जी को अर्पित कर दें । 

भोग लगाने के बात... जो जो चीजें आप भोग लगाए हैं... उसे प्रेम पूर्वक प्रसाद के रूप में सेवन करें । 

अखंड दीपक प्रज्वलन पूर्वक रात भर जाग्रत रहें । 

रात्रि जापन के बाद सुबह प्रातः काल भैरव जी का साधारण पूजन करें । 

अन्य सामग्री जिसे आप पहले पूजन किए थे उन सबको इकट्ठा करके किसी बहते हुए जल राशि में प्रवाहित कर दें । 

अखंडित सुपारी को जिन्हे आप भैरव जी के स्वरूप मानकर पूजन किए थे.... उन्हें भी वेहते हुए जल राशि में प्रवाहित कर दें। 

आने वाले अगले महीने के कृष्ण पक्ष अष्टमी तिथि में फिर इसी भांति कालाष्टमी का परिपालन करें।


कालाष्टमी के दौरान अनुष्ठान


कालाष्टमी भगवान शिव के अनुयायियों के लिए एक महत्वपूर्ण दिन है। 

इस दिन भक्त सूर्योदय से पहले उठते हैं और जल्दी स्नान करते हैं। 

वे काल भैरव का दिव्य आशीर्वाद पाने और अपने पापों के लिए क्षमा मांगने के लिए उनकी विशेष पूजा करते हैं।


भक्त शाम के समय भगवान काल भैरव के मंदिर भी जाते हैं और वहां विशेष पूजा - अर्चना करते हैं। ऐसा माना जाता है कि कालाष्टमी भगवान शिव का रौद्र रूप है। 

उनका जन्म भगवान ब्रह्मा के ज्वलंत क्रोध और क्रोध को समाप्त करने के लिए हुआ था।


कालाष्टमी पर सुबह के समय मृत पूर्वजों के लिए विशेष पूजा और अनुष्ठान भी किए जाते हैं।


भक्त पूरे दिन कठोर उपवास भी रखते हैं। 

कुछ कट्टर भक्त पूरी रात जागकर रात्रि जागरण करते हैं और महाकालेश्वर की कहानियाँ सुनकर अपना समय व्यतीत करते हैं। 

कालाष्टमी व्रत का पालन करने वाले को समृद्धि और खुशी का आशीर्वाद मिलता है और उसे अपने जीवन में सभी सफलताएं प्राप्त होती हैं।


काल भैरव कथा का पाठ करना और भगवान शिव के मंत्रों का जाप करना शुभ माना जाता है।


कालाष्टमी के दिन कुत्तों को खाना खिलाने का भी रिवाज है क्योंकि काले कुत्ते को भगवान भैरव का वाहन माना जाता है। 

कुत्तों को दूध, दही और मिठाई खिलाई जाती है।


काशी जैसे हिंदू तीर्थ स्थानों पर ब्राह्मणों को भोजन कराना अत्यधिक फलदायी माना जाता है।


कालाष्टमी का महत्व


कालाष्टमी की महिमा 'आदित्य पुराण' में बताई गई है। 

कालाष्टमी पर पूजा के मुख्य देवता भगवान काल भैरव हैं जिन्हें भगवान शिव का स्वरूप माना जाता है।


हिंदी में 'काल' शब्द का अर्थ 'समय' है जबकि 'भैरव' का अर्थ 'शिव की अभिव्यक्ति' है। 

इसलिए काल भैरव को 'समय का देवता' भी कहा जाता है और भगवान शिव के अनुयायियों द्वारा पूरी भक्ति के साथ उनकी पूजा की जाती है।


हिंदू किंवदंतियों के अनुसार, एक बार ब्रह्मा, विष्णु और महेश के बीच बहस के दौरान ब्रह्मा द्वारा की गई एक टिप्पणी से भगवान शिव क्रोधित हो गए। 

फिर उन्होंने 'महाकालेश्वर' का रूप धारण किया और भगवान ब्रह्मा का 5वां सिर काट दिया।


तभी से देवता और मनुष्य भगवान शिव के इस रूप को 'काल भैरव' के रूप में पूजते हैं। 

ऐसा माना जाता है कि जो लोग कालाष्टमी पर भगवान शिव की पूजा करते हैं वे भगवान शिव का उदार आशीर्वाद चाहते हैं।


यह भी प्रचलित मान्यता है कि इस दिन भगवान भैरव की पूजा करने से व्यक्ति के जीवन से सभी कष्ट, दर्द और नकारात्मक प्रभाव दूर हो जाते हैं।


🌼संक्षिप्त भैरव साधना🌼

मंत्र संग्रह पूर्व-पीठिका


मेरु-पृष्ठ पर सुखासीन, वरदा देवाधिदेव शंकर से !!

पूछा देवी पार्वती ने, अखिल विश्व-गुरु परमेश्वर से !

जन-जन के कल्याण हेतु, वह सर्व-सिद्धिदा मन्त्र बताएँ !!


जिससे सभी आपदाओं से साधक की रक्षा हो, वह सुख पाए !

शिव बोले, आपद्-उद्धारक मन्त्र, स्तोत्र  मैं बतलाता,

देवि ! पाठ जप कर जिसका, है मानव सदा शान्ति-सुख पाता !!


                !! ध्यान !!


सात्विकः-

बाल-स्वरुप वटुक भैरव-स्फटिकोज्जवल-स्वरुप है जिनका,

घुँघराले केशों से सज्जित-गरिमा-युक्त रुप है जिनका,

दिव्य कलात्मक मणि-मय किंकिणि नूपुर से वे जो शोभित हैं !

भव्य-स्वरुप त्रिलोचन-धारी जिनसे पूर्ण-सृष्टि सुरभित है !

कर-कमलों में शूल-दण्ड-धारी का ध्यान-यजन करता हूँ !

रात्रि-दिवस उन ईश वटुक-भैरव का मैं वन्दन करता हूँ !!


राजसः-

नवल उदीयमान-सविता-सम, भैरव का शरीर शोभित है,

रक्त-अंग-रागी, त्रैलोचन हैं जो, जिनका मुख हर्षित है !

नील-वर्ण-ग्रीवा में भूषण, रक्त-माल धारण करते हैं !

शूल, कपाल, अभय, वर-मुद्रा ले साधक का भय हरते हैं !

रक्त-वस्त्र बन्धूक-पुष्प-सा जिनका, जिनसे है जग सुरभित,

ध्यान करुँ उन भैरव का, जिनके केशों पर चन्द्र सुशोभित !!


तामसः-

तन की कान्ति नील-पर्वत-सी, मुक्ता-माल, चन्द्र धारण कर,

पिंगल-वर्ण-नेत्रवाले वे ईश दिगम्बर, रुप भयंकर !

डमरु, खड्ग, अभय-मुद्रा, नर-मुण्ड, शुल वे धारण करते,

अंकुश, घण्टा, सर्प हस्त में लेकर साधक का भय हरते !

दिव्य-मणि-जटित किंकिणि, नूपुर आदि भूषणों से जो शोभित,

भीषण सन्त-पंक्ति-धारी भैरव हों मुझसे पूजित, अर्चित !!


!! तांत्रोक्त भैरव कवच !!


ॐ सहस्त्रारे महाचक्रे कर्पूरधवले गुरुः !

पातु मां बटुको देवो भैरवः सर्वकर्मसु !!

पूर्वस्यामसितांगो मां दिशि रक्षतु सर्वदा !

आग्नेयां च रुरुः पातु दक्षिणे चण्ड भैरवः !!

नैॠत्यां क्रोधनः पातु उन्मत्तः पातु पश्चिमे !

वायव्यां मां कपाली च नित्यं पायात् सुरेश्वरः !!

भीषणो भैरवः पातु उत्तरास्यां तु सर्वदा !

संहार भैरवः पायादीशान्यां च महेश्वरः !!

ऊर्ध्वं पातु विधाता च पाताले नन्दको विभुः !

सद्योजातस्तु मां पायात् सर्वतो देवसेवितः !!

रामदेवो वनान्ते च वने घोरस्तथावतु !

जले तत्पुरुषः पातु स्थले ईशान एव च !!

डाकिनी पुत्रकः पातु पुत्रान् में सर्वतः प्रभुः !

हाकिनी पुत्रकः पातु दारास्तु लाकिनी सुतः !!

पातु शाकिनिका पुत्रः सैन्यं वै कालभैरवः !

मालिनी पुत्रकः पातु पशूनश्वान् गंजास्तथा !!

महाकालोऽवतु क्षेत्रं श्रियं मे सर्वतो गिरा !

वाद्यम् वाद्यप्रियः पातु भैरवो नित्यसम्पदा !!


!! भैरव वशीकरण मन्त्र !!


“ॐनमो रुद्राय, कपिलाय, भैरवाय, त्रिलोक- नाथाय, ॐ ह्रीं फट् स्वाहा ”

“ॐ भ्रां भ्रां भूँ भैरवाय स्वाहा। ॐ भं भं भं अमुक-मोहनाय स्वाहा ”

“ॐ नमो काला गोरा भैरुं वीर, पर-नारी सूँ देही सीर ! 

गुड़ परिदीयी गोरख जाणी, गुद्दी पकड़ दे भैंरु आणी, गुड़, रक्त का धरि ग्रास, कदे न छोड़े मेरा पाश ! 

जीवत सवै देवरो, मूआ सेवै मसाण ! 

पकड़ पलना ल्यावे ! 

काला भैंरु न लावै, तो अक्षर देवी कालिका की आण ! 

फुरो मन्त्र, ईश्वरी वाचा !”


ॐ भैरवाय नम: !!*

ॐ हं षं नं गं कं सं खं महाकाल भैरवायनम:!

ॐ ह्रीं बटुकाय आपदुद्धारणाचतु य कुरु कुरु बटुकाय ह्रीं ॐ !!


ॐ ह्रीं वां बटुकाये क्षौं क्षौं आपदुद्धाराणाये कुरु कुरु बटुकाये ह्रीं बटुकाये स्वाहा !!


!! श्री स्वर्णाकर्षण भैरव स्तोत् !!


विनियोग -

 ॐ अस्य श्रीस्वर्णाकर्षणभैरव महामंत्रस्य श्री महाभैरव ब्रह्मा ऋषिः , त्रिष्टुप्छन्दः , त्रिमूर्तिरूपी भगवान स्वर्णाकर्षणभैरवो देवता, ह्रीं बीजं , सः शक्तिः, वं कीलकं मम् दारिद्रय नाशार्थे विपुल धनराशिं स्वर्णं च प्राप्त्यर्थे जपे विनियोगः !!


      अब बाए हाथ मे जल लेकर दाहिने हाथ की उंगलियों को जल से स्पर्श करके मंत्र मे दिये हुए शरीर के स्थानो पर स्पर्श करे !!


!! ऋष्यादिन्यास !!


श्री महाभैरव ब्रह्म ऋषये नमः शिरसि !

त्रिष्टुप छ्न्दसे नमः मुखे !

श्री त्रिमूर्तिरूपी भगवान

स्वर्णाकर्षण भैरव देवतायै नमः ह्रदिः !

ह्रीं बीजाय नमः गुह्ये !

सः शक्तये नमः पादयोः !

वं कीलकाय नमः नाभौ !

मम् दारिद्रय नाशार्थे विपुल धनराशिं

स्वर्णं च प्राप्त्यर्थे जपे विनियोगाय नमः सर्वांगे !


मंत्र बोलते हुए दोनो हाथ के उंगलियों को आग्या चक्र पर स्पर्श करे ! 

अंगुष्ठ का मंत्र बोलते समय दोनो अंगुष्ठ से आग्या चक्र पर स्पर्श करना है !!


!! करन्यास !!


ॐ अंगुष्ठाभ्यां नमः !

ऐं तर्जनीभ्यां नमः !

क्लां ह्रां मध्याभ्यां नमः !

क्लीं ह्रीं अनामिकाभ्यां नमः !

क्लूं ह्रूं कनिष्ठिकाभ्यां नमः !

सं वं करतलकरपृष्ठाभ्यां नमः !

अब मंत्र बोलते हुए दाहिने हाथ से मंत्र मे कहे गये शरीर के भाग पर स्पर्श करना है !!


!! हृदयादि न्यास !!


आपदुद्धारणाय हृदयाय नमः !

अजामल वधाय शिरसे स्वाहा !

लोकेश्वराय शिखायै वषट् !

स्वर्णाकर्षण भैरवाय कवचाय हुम् !

मम् दारिद्र्य विद्वेषणाय नेत्रत्रयाय वौषट् !

श्रीमहाभैरवाय नमः अस्त्राय फट् !

रं रं रं ज्वलत्प्रकाशाय नमः इति दिग्बन्धः !!


      अब दोनो हाथ जोड़कर ध्यान करे !!

( ध्यान मंत्र का  उच्चारण करें !!

 जिसका हिन्दी में सरलार्थ नीचे दिया गया है ! वैसा ही आप भाव करें )


ॐ पीतवर्णं चतुर्बाहुं त्रिनेत्रं पीतवाससम् !

अक्षयं स्वर्णमाणिक्य तड़ित-पूरितपात्रकम् !!

अभिलसन् महाशूलं चामरं तोमरोद्वहम् !

सततं चिन्तये देवं भैरवं सर्वसिद्धिदम् !!


मंदारद्रुमकल्पमूलमहिते माणिक्य सिंहासने, संविष्टोदरभिन्न चम्पकरुचा देव्या समालिंगितः !

भक्तेभ्यः कररत्नपात्रभरितं स्वर्णददानो भृशं, स्वर्णाकर्षण भैरवो विजयते स्वर्णाकृति : सर्वदा !!


हिन्दी भावार्थ :- श्रीस्वर्णाकर्षण भैरव जी मंदार ( सफेद आक ) के नीचे माणिक्य के सिंहासन पर बैठे हैं ! उनके वाम भाग में देवि उनसे समालिंगित हैं ! 

उनकी देह आभा पीली है तथा उन्होंने पीले ही वस्त्र धारण किये हैं ! 

उनके तीन नेत्र हैं ! 

चार बाहु हैं जिन्में उन्होंने स्वर्ण - माणिक्य से भरे हुए पात्र, महाशूल, चामर तथा तोमर को धारण कर रखा है ! 

वे अपने भक्तों को स्वर्ण देने के लिए तत्पर हैं। 

ऐसे सर्वसिद्धिप्रदाता श्री स्वर्णाकर्षण भैरव का मैं अपने हृदय में ध्यान व आह्वान करता हूं उनकी शरण ग्रहण करता हूं ! 

आप मेरे दारिद्रय का नाश कर मुझे अक्षय अचल धन समृद्धि और स्वर्ण राशि प्रदान करे और मुझ पर अपनी कृपा वृष्टि करें।

मानसोपचार पुजन के मंत्रो को मन मे बोलना है !


!! मानसोपचार पूजन !!


लं पृथिव्यात्मने गंधतन्मात्र प्रकृत्यात्मकं गंधं श्रीस्वर्णाकर्षण भैरवं अनुकल्पयामि नम: !

हं आकाशात्मने शब्दतन्मात्र प्रकृत्यात्मकं पुष्पं श्रीस्वर्णाकर्षण भैरवं अनुकल्पयामि नम: !

यं वायव्यात्मने स्पर्शतन्मात्र प्रकृत्यात्मकं धूपं श्रीस्वर्णाकर्षण भैरवं अनुकल्पयामि नम: !

रं वह्न्यात्मने रूपतन्मात्र प्रकृत्यात्मकं दीपं श्रीस्वर्णाकर्षण भैरवं अनुकल्पयामि नम: !

वं अमृतात्मने रसतन्मात्र प्रकृत्यात्मकं अमृतमहानैवेद्यं श्रीस्वर्णाकर्षण भैरवं अनुकल्पयामि नम: !

सं सर्वात्मने ताम्बूलादि सर्वोपचारान् पूजां श्रीस्वर्णाकर्षण भैरवं अनुकल्पयामि नम: !!


!! मंत्र !!


ॐ ऐं क्लां क्लीं क्लूं ह्रां ह्रीं ह्रूं स: वं आपदुद्धारणाय अजामलवधाय लोकेश्वराय स्वर्णाकर्षण भैरवाय मम् दारिद्रय विद्वेषणाय ॐ ह्रीं महाभैरवाय नम: !!


मंत्र जाप के बाद स्तोत्र का एक पाठ अवश्य करे !!


!! श्री स्वर्णाकर्षण भैरव स्त्रोत् !!


!! श्री मार्कण्डेय उवाच !!


भगवन् ! प्रमथाधीश ! शिव-तुल्य-पराक्रम !

पूर्वमुक्तस्त्वया मन्त्रं, भैरवस्य महात्मनः !!

इदानीं श्रोतुमिच्छामि, तस्य स्तोत्रमनुत्तमं !

तत् केनोक्तं पुरा स्तोत्रं, पठनात्तस्य किं फलम् !!

तत् सर्वं श्रोतुमिच्छामि, ब्रूहि मे नन्दिकेश्वर !!


!! श्री नन्दिकेश्वर उवाच !!


इदं ब्रह्मन् ! महा-भाग, लोकानामुपकारक !

स्तोत्रं वटुक-नाथस्य, दुर्लभं भुवन-त्रये !!

सर्व-पाप-प्रशमनं, सर्व-सम्पत्ति-दायकम् !

दारिद्र्य-शमनं पुंसामापदा-भय-हारकम् !!

अष्टैश्वर्य-प्रदं नृणां, पराजय-विनाशनम् !

महा-कान्ति-प्रदं चैव, सोम-सौन्दर्य-दायकम् !!

महा-कीर्ति-प्रदं स्तोत्रं, भैरवस्य महात्मनः !

न वक्तव्यं निराचारे, हि पुत्राय च सर्वथा !!

शुचये गुरु-भक्ताय, शुचयेऽपि तपस्विने !

महा-भैरव-भक्ताय, सेविते निर्धनाय च !!

निज-भक्ताय वक्तव्यमन्यथा शापमाप्नुयात् !

स्तोत्रमेतत् भैरवस्य, ब्रह्म-विष्णु-शिवात्मनः !!

श्रृणुष्व ब्रूहितो ब्रह्मन् ! सर्व-काम-प्रदायकम् !!


!! विनियोग !!


ॐ अस्य श्रीस्वर्णाकर्षण-भैरव-स्तोत्रस्य ब्रह्मा ऋषिः, अनुष्टुप् छन्दः, श्रीस्वर्णाकर्षण-भैरव-देवता, ह्रीं बीजं, क्लीं शक्ति, सः कीलकम्, मम-सर्व-काम-सिद्धयर्थे पाठे विनियोगः !!


!! ध्यान !!


मन्दार-द्रुम-मूल-भाजि विजिते रत्नासने संस्थिते !

दिव्यं चारुण-चञ्चुकाधर-रुचा देव्या कृतालिंगनः !!

भक्तेभ्यः कर-रत्न-पात्र-भरितं स्वर्ण दधानो भृशम् !

स्वर्णाकर्षण-भैरवो भवतु मे स्वर्गापवर्ग-प्रदः !!


!! स्त्रोत् -पाठ !!


ॐ नमस्तेऽस्तु भैरवाय, ब्रह्म-विष्णु-शिवात्मने !

नमः त्रैलोक्य-वन्द्याय, 

वरदाय परात्मने !!

रत्न-सिंहासनस्थाय, दिव्याभरण-शोभिने !

नमस्तेऽनेक-हस्ताय, 

ह्यनेक-शिरसे नमः !

नमस्तेऽनेक-नेत्राय, 

ह्यनेक-विभवे नमः !!

नमस्तेऽनेक-कण्ठाय, 

ह्यनेकान्ताय ते नमः !

नमोस्त्वनेकैश्वर्याय, 

ह्यनेक-दिव्य-तेजसे !!

अनेकायुध-युक्ताय, 

ह्यनेक-सुर-सेविने !

अनेक-गुण-युक्ताय, 

महा-देवाय ते नमः !!

नमो दारिद्रय-कालाय, महा-सम्पत्-प्रदायिने !

श्रीभैरवी-प्रयुक्ताय, 

त्रिलोकेशाय ते नमः !!

दिगम्बर ! नमस्तुभ्यं, 

दिगीशाय नमो नमः !

नमोऽस्तु दैत्य-कालाय, 

पाप-कालाय ते नमः !!

सर्वज्ञाय नमस्तुभ्यं, 

नमस्ते दिव्य-चक्षुषे !

अजिताय नमस्तुभ्यं, 

जितामित्राय ते नमः !

नमस्ते रुद्र-पुत्राय, 

गण-नाथाय ते नमः !

नमस्ते वीर-वीराय, 

महा-वीराय ते नमः !!

नमोऽस्त्वनन्त-वीर्याय, 

महा-घोराय ते नमः !

नमस्ते घोर-घोराय, 

विश्व-घोराय ते नमः !!

नमः उग्राय शान्ताय, 

भक्तेभ्यः शान्ति-दायिने !

गुरवे सर्व-लोकानां, 

नमः प्रणव-रुपिणे !!

नमस्ते वाग्-भवाख्याय, 

दीर्घ-कामाय ते नमः !

नमस्ते काम-राजाय, 

योषित्कामाय ते नमः !!

दीर्घ-माया-स्वरुपाय, 

महा-माया-पते नमः !

सृष्टि-माया-स्वरुपाय, 

विसर्गाय सम्यायिने !!

रुद्र- लोकेश- पूज्याय, 

ह्यापदुद्धारणाय च !

नमोऽजामल- बद्धाय, 

सुवर्णाकर्षणाय ते !!

नमो नमो भैरवाय, 

महा-दारिद्रय-नाशिने !

उन्मूलन-कर्मठाय, 

ह्यलक्ष्म्या सर्वदा नमः !!

नमो लोक-त्रेशाय, 

स्वानन्द-निहिताय ते !

नमः श्रीबीज-रुपाय, सर्व-काम-प्रदायिने !!

नमो महा-भैरवाय, 

श्रीरुपाय नमो नमः !

धनाध्यक्ष ! नमस्तुभ्यं, 

शरण्याय नमो नमः !!

नमः प्रसन्न-रुपाय, 

ह्यादि-देवाय ते नमः !

नमस्ते मन्त्र-रुपाय, 

नमस्ते रत्न-रुपिणे !!

नमस्ते स्वर्ण-रुपाय, 

सुवर्णाय नमो नमः !

नमः सुवर्ण-वर्णाय, 

महा-पुण्याय ते नमः !!

नमः शुद्धाय बुद्धाय, 

नमः संसार-तारिणे !

नमो देवाय गुह्याय, 

प्रबलाय नमो नमः !!

नमस्ते बल-रुपाय, 

परेषां बल-नाशिने !

नमस्ते स्वर्ग-संस्थाय, 

नमो भूर्लोक-वासिने !!

नमः पाताल-वासाय, 

निराधाराय ते नमः !

नमो नमः स्वतन्त्राय, 

ह्यनन्ताय नमो नमः !!

द्वि-भुजाय नमस्तुभ्यं, भुज-त्रय-सुशोभिने !

नमोऽणिमादि-सिद्धाय, 

स्वर्ण-हस्ताय ते नमः !!

पूर्ण-चन्द्र-प्रतीकाश-

वदनाम्भोज-शोभिने !

नमस्ते स्वर्ण-रुपाय, स्वर्णालंकार-शोभिने !!

नमः स्वर्णाकर्षणाय, 

स्वर्णाभाय च ते नमः !

नमस्ते स्वर्ण-कण्ठाय, स्वर्णालंकार-धारिणे !!

स्वर्ण-सिंहासनस्थाय, 

स्वर्ण-पादाय ते नमः !

नमः स्वर्णाभ-पाराय, स्वर्ण-काञ्ची-सुशोभिने !!

नमस्ते स्वर्ण-जंघाय, भक्त-काम-दुघात्मने !

नमस्ते स्वर्ण-भक्तानां, कल्प-वृक्ष-स्वरुपिणे !!

चिन्तामणि-स्वरुपाय, नमो ब्रह्मादि-सेविने !

कल्पद्रुमाधः-संस्थाय, बहु-स्वर्ण-प्रदायिने !!

भय-कालाय भक्तेभ्यः, सर्वाभीष्ट-प्रदायिने !

नमो हेमादि-कर्षाय, 

भैरवाय नमो नमः !!

स्तवेनानेन सन्तुष्टो, 

भव लोकेश-भैरव !

पश्य मां करुणाविष्ट, 

शरणागत-वत्सल !

श्रीभैरव धनाध्यक्ष, 

शरणं त्वां भजाम्यहम् !

प्रसीद सकलान् कामान्, 

प्रयच्छ मम सर्वदा !!


!! फल-श्रुति !!


श्रीमहा-भैरवस्येदं, स्तोत्र सूक्तं सु-दुर्लभम् !

मन्त्रात्मकं महा-पुण्यं, सर्वैश्वर्य-प्रदायकम् !!

यः पठेन्नित्यमेकाग्रं, पातकैः स विमुच्यते !

लभते चामला-लक्ष्मीमष्टैश्वर्यमवाप्नुयात् !!

चिन्तामणिमवाप्नोति, धेनुं कल्पतरुं ध्रुवम् !

स्वर्ण-राशिमवाप्नोति, सिद्धिमेव स मानवः !!

संध्याय यः पठेत्स्तोत्र, दशावृत्त्या नरोत्तमैः !

स्वप्ने श्रीभैरवस्तस्य, साक्षाद् भूतो जगद्-गुरुः !

स्वर्ण-राशि ददात्येव, तत्क्षणान्नास्ति संशयः !

सर्वदा यः पठेत् स्तोत्रं, भैरवस्य महात्मनः !!

लोक-त्रयं वशी कुर्यात्, अचलां श्रियं चाप्नुयात् !

न भयं लभते क्वापि, विघ्न-भूतादि-सम्भव !!

म्रियन्ते शत्रवोऽवश्यम लक्ष्मी-नाशमाप्नुयात् !

अक्षयं लभते सौख्यं, सर्वदा मानवोत्तमः !!

अष्ट-पञ्चाशताणढ्यो, मन्त्र-राजः प्रकीर्तितः !

दारिद्र्य-दुःख-शमनं, स्वर्णाकर्षण- कारकः !!

य येन संजपेत् धीमान्, स्तोत्र वा प्रपठेत् सदा !

महा-भैरव-सायुज्यं, स्वान्त-काले भवेद् ध्रुवं !!


!! श्री भैरव चालीसा !!

!! दोहा !!


श्री गणपति, गुरु गौरि पद, प्रेम सहित धरि माथ !

चालीसा वन्दन करों, श्री शिव भैरवनाथ !!

श्री भैरव संकट हरण, मंगल करण कृपाल !

श्याम वरण विकराल वपु, लोचन लाल विशाल !!


जय जय श्री काली के लाला !

जयति जयति काशी- कुतवाला !!


जयति बटुक भैरव जय हारी !

जयति काल भैरव बलकारी !!


जयति सर्व भैरव विख्याता !

जयति नाथ भैरव सुखदाता !!


भैरव रुप कियो शिव धारण !

भव के भार उतारण कारण !!


भैरव रव सुन है भय दूरी !

सब विधि होय कामना पूरी !!


शेष महेश आदि गुण गायो ! 

काशी-कोतवाल कहलायो !!


जटाजूट सिर चन्द्र विराजत !

बाला, मुकुट, बिजायठ साजत !!


कटि करधनी घुंघरु बाजत !

दर्शन करत सकल भय भाजत !!


जीवन दान दास को दीन्हो !

कीन्हो कृपा नाथ तब चीन्हो !!


वसि रसना बनि सारद-काली !

दीन्यो वर राख्यो मम लाली !!


धन्य धन्य भैरव भय भंजन !

जय मनरंजन खल दल भंजन !!


कर त्रिशूल डमरु शुचि कोड़ा !

कृपा कटाक्ष सुयश नहिं थोड़ा !!


जो भैरव निर्भय गुण गावत !

अष्टसिद्घि नवनिधि फल पावत !!


रुप विशाल कठिन दुख मोचन !

क्रोध कराल लाल दुहुं लोचन !!


अगणित भूत प्रेत संग डोलत ! 

बं बं बं शिव बं बं बोतल !!


रुद्रकाय काली के लाला !

महा कालहू के हो काला !!


बटुक नाथ हो काल गंभीरा !

श्वेत, रक्त अरु श्याम शरीरा !!


करत तीनहू रुप प्रकाशा !

भरत सुभक्तन कहं शुभ आशा !!


रत्न जड़ित कंचन सिंहासन !

व्याघ्र चर्म शुचि नर्म सुआनन !!


तुमहि जाई काशिहिं जन ध्यावहिं !

विश्वनाथ कहं दर्शन पावहिं !!


जय प्रभु संहारक सुनन्द जय !

जय उन्नत हर उमानन्द जय !!


भीम त्रिलोकन स्वान साथ जय !

बैजनाथ श्री जगतनाथ जय !!


महाभीम भीषण शरीर जय !

रुद्र त्र्यम्बक धीर वीर जय !!


अश्वनाथ जय प्रेतनाथ जय !

श्वानारुढ़ सयचन्द्र नाथ जय !!


निमिष दिगम्बर चक्रनाथ जय !

गहत अनाथन नाथ हाथ जय !!


त्रेशलेश भूतेश चन्द्र जय !

क्रोध वत्स अमरेश नन्द जय !!

श्री वामन नकुलेश चण्ड जय !

कृत्याऊ कीरति प्रचण्ड जय !!


रुद्र बटुक क्रोधेश काल धर !

चक्र तुण्ड दश पाणिव्याल धर !!


करि मद पान शम्भु गुणगावत !

चौंसठ योगिन संग नचावत !!


करत कृपा जन पर बहु ढंगा !

काशी कोतवाल अड़बंगा !!


देयं काल भैरव जब सोटा !

नसै पाप मोटा से मोटा !!


जाकर निर्मल होय शरीरा !

मिटै सकल संकट भव पीरा !!


श्री भैरव भूतों के राजा !

बाधा हरत करत शुभ काजा !!


ऐलादी के दुःख निवारयो !

सदा कृपा करि काज सम्हारयो !!


सुन्दरदास सहित अनुरागा !

श्री दुर्वासा निकट प्रयागा !!


श्री भैरव जी की जय लेख्यो !

सकल कामना पूरण देख्यो !!


!! दोहा !!


जय जय जय भैरव बटुक, स्वामी संकट टार !

कृपा दास पर कीजिये, शंकर के अवतार !!

जो यह चालीसा पढ़े, प्रेम सहित सत बार !

उस घर सर्वानन्द हों, वैभव बड़े अपार !!


!! आरती श्री भैरव जी की !!


जय भैरव देवा, प्रभु जय भैरव देवा !

जय काली और गौरा देवी कृत सेवा !! जय !!

तुम्हीं पाप उद्घारक दुःख सिन्धु तारक !

भक्तों के सुख कारक भीषण वपु धारक !! जय !!

वाहन श्वान विराजत कर त्रिशूल धारी !

महिमा अमित तुम्हारी जय जय भयहारी !! जय !!

तुम बिन देवा सेवा सफल नहीं होवे !

चौमुख दीपक दर्शन दुःख खोवे !! जय !!

तेल चटकि दधि मिश्रित भाषा वलि तेरी !

कृपा करिये भैरव करिए नहीं देरी !! जय !!

पांव घुंघरु बाजत अरु डमरु जमकावत !

बटुकनाथ बन बालकजन मन हरषावत !! जय !!

बटकुनाथ की आरती जो कोई नर गावे !

कहे धरणीधर नर मनवांछित फल पावे !! जय !!


!! साधना यंत्र !!


      श्री बटुक भैरव का यंत्र लाकर उसे साधना के स्थान पर भैरव जी के चित्र के समीप रखें ! दोनों को लाल वस्त्र बिछाकर उसके ऊपर यथास्थिति में रखें ! चित्र या यंत्र के सामने माला, फूल, थोड़े काले उड़द चढ़ाकर उनकी विधिवत पूजा करके लड्डू का भोग लगाएं !!


!! साधना का समय !!


       इस साधना को किसी भी मंगलवार या मंगल विशेष भैरवाष्टमी के दिन आरम्भ करना चाहिए शाम 7 से 10 बजे के बीच नित्य 41 दिन करने से अभीष्ट सिद्धि प्राप्त होती है !!


!! साधना की चेतावनी !!


 साधना के दौरान खान-पान शुद्ध रखें !!

 सहवास से दूर रहें ! वाणी की शुद्धता रखें और किसी भी कीमत पर क्रोध न करें !!

 यह साधना किसी गुरु से अच्छे से जानकर ही करें !!


!! साधना नियम व सावधानी !!


1 :-  यदि आप भैरव साधना किसी मनोकामना के लिए कर रहे हैं तो अपनी मनोकामना का संकल्प बोलें और फिर साधना शुरू करें !!


2 :- यह साधना दक्षिण दिशा में मुख करके की जाती है !!


3 :-  रुद्राक्ष या हकीक की माला से मंत्र जप किया जाता है !!


4 :-  भैरव की साधना रात्रिकाल में ही करें !!


5 :-  भैरव पूजा में केवल तेल के दीपक का ही उपयोग करना चाहिए !!


6 :-  साधक लाल या काले वस्त्र धारण करें !!


7 :-  हर मंगलवार को लड्डू के भोग को पूजन- साधना के बाद कुत्तों को खिला दें और नया भोग रख दें !!


पंडारामा प्रभु राज्यगुरू 

( द्रविड़ ब्राह्मण )

Wednesday, May 21, 2025

गुरु ग्रह एक परिचय और लग्न योग के समय

गुरु ग्रह एक परिचय और लग्न योग के समय , विवाह का योग जाने अपनी जन्म कुंडली से कब तक हो जाएगा और उपाय ..


गुरु ग्रह एक परिचय :


गुरु ( बृहस्पति ) सत्वगुण प्रधान, दीर्घ और स्थूल शरीर, कफ प्रकृति, पीट वर्ण किंतु नेत्र और शरीर के बाल कुछ भूरा पन लिए हुए, गोल आकृति, आकाश तत्त्व प्रधान, बड़ा पेट, ईशान ( पूर्वोत्तर ) दिशा का स्वामी शंख के समान गंभीर वाणी, स्थिर प्रकृति, ब्राह्मण एवं पुरुष जाती,  तथा धर्म ( आध्यात्म विद्या ) का अधिष्ठाता होने से इन्हें देवताओ का गुरु माना जाता है। 

देवता ब्रह्मा तथा अधिदेवता इंद्र है। ये मीठे रस एवं हेमंत ऋतू के अधिष्ठाता है। 

गुरु धनु एवं मीन राशियों के स्वामी है। ये कर्क राशि के 5 अंश पर उच्च के तथा मकर राशि के 5 अंश पर नीच के माने जाते है। 

गुरु बृहस्पति राशि चक्र की एक राशि में 13 महीनो में पूरा चक्र लगा लेते है।

गुरु से प्रभावित कुंडली के जातक के 16, 22, एवं 40 वे वर्ष में विशेष प्रभावकारी होते है। 

गुरु को 2, 5, 9, 10 एवं 11 वे भाव का कारक माना जाता है।




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गुरु के पर्यायवाची देवगुरु, बृहस्पति, वाचस्पति, मंत्री, अंगिरा, अंगिरस, जीव आदि।

कारकत्वादि विवेक-बुद्धि, आध्यात्मिक व् शास्त्रज्ञान, विद्या, पारलौकिकता, धन, न्याय, पति का सुख ( स्त्री की कुंडली में ), पुत्र संतति, बड़ा भाई, देव-ब्राह्मण, भक्ति, मंत्री, पौत्र, पितामह, परमार्थ, एवं धर्म के कारक है। 

इसके अतिरिक्त परोपकार, मन्त्र विद्या, वेदांत ज्ञान, उदारता, जितेन्द्रियता, स्वास्थ्य, श्रवण शक्ति, सिद्धान्तवादिता, उच्चाभिलाषी, पांडित्य, श्रेष्ठ गुण, विनम्रता, वाहन सुख, सुवर्ण, कांस्य, घी, चने, गेंहू, पीत वर्ण के फल, धनिया, जौ, हल्दी, प्याज-लहसुन, ऊन, मोम, पुखराज, आदि का विचार भी किया जाता है।

मनुष्य शरीर में चर्बी, कमर से जंघा तक, ह्रदय, कोष संबंधी, कान, कब्ज एवं जिगर संबंदी रोगों का विचार भी गुरु से किया जाता है।

कुंडली में गुरु यदि अशुभ राशि में अथवा अशुभ दृष्टि में हो तो उपरोक्त शरीर के अंगों में रोग की संभावनाएं रहती है।

इसके अतिरिक्त गुरु अशुभ होने की स्थिति में पैतृक सुख-सम्पति में कमी, नास्तिकता, संतान को या से कष्ट, उच्चविद्या में बाधा एवं असफलता एवं लड़को के विवाह में अड़चने आना जैसे अशुभ फल होते है।

गुरु और शुक्र दोनों शुभ ग्रह है परंतु गुरु से पारलौकिक एवं आध्यात्मिक एवं शुक्र से सांसारिक एवं व्यवहारिक सुख अनुभूतियों का विचार किया जाता है।

बृहस्पति का शुभाशुभ फल

कुंडली के द्वादश भाव में शुभ गुरु  मेष, सिंह लग्न के जातक/जातिकाओ को द्वादश भावस्थ गुरु प्रायः शुभ तथा वृष, कन्या, धनु, मकर व् मीन लग्न के जातक / जातिकाओ को मिश्रित फलदायी रहता है।

शुभ गुरु के प्रभावस्वरूप जातक / जातिका अनेक बढ़ाओ के बाद भी उच्चशिक्षित, परोपकारी स्वभाव, धर्मपरायण, विदेश में विशेष सफल, भ्रमण प्रिय, ट्रांसपोर्ट आदि के कार्यो द्वारा लाभ पाने वाला, 42 वर्ष की आयु के पश्चात विशेष भाग्योदय, स्त्री एवं संतान का पूर्ण सुख, भूमि - वाहनादि साधनों से युत, आध्यत्म,ज्योतिष एवं गूढ़ विषयो में रुचि हो एवं शुभ कार्यो में खर्च करने वाला होता है।

अशुभ गुरु मिथुन, कर्क, तुला, वृश्चिक व् कुम्भ लग्न के जातक / जातिका के लिए तथा गुरु यदि नीच, अस्त, अतिचारी या राहु, शनि, शुक्रादि ग्रहों से युत हो तो जातक अधार्मिक वृति वाला ,अविश्वाशी, यात्रा एवं भ्रमण में वृथा खर्च करने वाला, आय कम खर्च अधिक, उच्चशिक्षा में विघ्न - बाधाएं या अधूरी शिक्षा, शारीरिक कष्ट, आकस्मिक धन हानि, संतान को कष्ट एवं दाम्पत्य जीवन में भी अशांति रहती है।

लग्न अनुसार अशुभ गुरु 

इस लेख के माध्यम से हम लग्न के अनुसार अशुभ गुरु की चर्चा करेंगे जिससे आप स्वयं ही अपनी कुंडली में गुरु की स्थिति देख सके। 

इसमें आप केवल इस योग के आधार पर ही बिल्कुल शुभ या अशुभ न समझ लें अपितु अन्य योग भी देखें । 

गुरु के साथ बैठे ग्रह को देखें तथा गुरु पर कौनसा ग्रह दृष्टि डाल रहा है ? 

यह देखें कि वह मित्र है अथवा शत्रु है। 

इसके बाद ही निष्कर्ष निकालें कि गुरु कितना अशुभ अथवा शुभ है।

मेष लग्न  इस लग्न का स्वामी मंगल है जो गुरु का मित्र है परन्तु फिर भी लग्न में तृतीय, षष्ठम व एकादश भाव में तो बहुत ही अशुभ फल देता है। 

अनभव में द्वितीय तथा आय भाव में भी अशुभ फल देखे गये हैं।

वृषभ लग्न  इस लग्न का स्वामी शुक्र है जो गुरु का परम शत्रु है, इस लिये गुरु के इस लग्न में अष्टम व दशम भाव में फिर भी कुछ फल मिल जाते हैं अन्यथा अन्य सभी भावों में अत्यधिक अशुभ होता है।

मिथुन लग्न  इस लग्न का स्वामी स्वयं बुध होता है, इसलिये गुरु यहां धन भाव ततीय, चतुर्थ भाव, षष्ठम, अष्टम, नवम भाव व द्वादश भाव में अशुभ फल देता है।

कर्क लग्न इस लग्न का स्वामी चन्द्र है जो गुरु का परम मित्र है फिर भी गुरु लग्न, तृतीय, षष्ठम, अष्टम, व व्यय भाव में अशुभ होता है।

सिंह लग्न इस लग्न का स्वामी सूर्य गुरु का मित्र है फिर भी गुरु धन भाव, पराक्रम भाव, सुख भाव, रोग भाव, सप्तम भाव, अष्टम भाव तथा व्यय भाव में अधिक अशुभ फल देता है।

कन्या लग्न कन्या लग्न का स्वामी भी बुध होता है, इस लिये गुरु दशम भाव के अतिरिक्त प्रत्येक भाव में अशुभ फल देता है।

तुला लग्न इस लग्न का स्वामी शुक्र है जो गुरु का परम शत्रु है, इस लिये गुरु इस लग्न में प्रथम, तृतीय, षष्ठम, अष्टम, नवम तथा द्वादश भाव में विशेष अशुभ फल देता है।

वृश्चिक लग्न इस लग्न का स्वामी मंगल है जो गुरु का विशेष मित्र है फिर भी इस लग्न में गुरु अधिकतर भाव में अशुभ फल ही देता है जिसमें कि लग्न, तृतीय, षष्ठ, सप्तम, अष्टम, एकादश तथा द्वादश भावों में विशेष अशुभ होता है।

धनु लग्न  इस लग्न का स्वामी स्वयं गुरु है परन्तु तृतीय, षष्ठम, सप्तम, अष्टम तथा एकादश घर में अत्यधिक अशुभ फल देता है।

मकर लग्न इस लग्न का स्वामी शनि है, इस लिये गुरु इस लग्न में केवल लग्न दशम, पंचम तथा नवम भाव में कुछ शुभ फल देता है अन्यथा अन्य सभी भावों में बहुत ही अधिक अशुभ फल देते देखा गया है।

कुंभ लग्न इस लग्न का स्वामी शनि है, इस लिये गुरु इस लग्न में केवल प्रथम व दशम भाव के अतिरिक्त अन्य सभी भावों में अशुभ फल देता है।

मीन लग्न इस लग्न का स्वामी भी स्वयं गुरु है परन्तु तृतीय, षष्ठम, अष्टम, एकादश तथा द्वादश भाव में अत्यधिक अशुभ फल देता है।

गुरु की महादशा का फल :

जन्मपत्रिका में गुरु यदि पीडित, अकारक, अस्त, पापी अथवा केन्द्राधिपति से दूषित हो तो इस की दशा में अग्रांकित फल प्राप्त होते हैं। 

यहां मैं पुनः कहता हु की यह फल देखने से पहले आप समस्त प्रकार से यह जांच कर लें कि आपकी
में गुरु की क्या स्थिति है ? 

यह फल आपको तभी प्राप्त होंगे जब गुरु उपरोक्त स्थिति में होगा। 

साथ ही यह भी देखें कि गुरु के साथ किस ग्रह की युति है या किस ग्रह की दष्टि है अथवा गुरु की राशि में कौन सा ग्रह विराजमान है ? 

शुभ ग्रह, लग्नेश या कारक ग्रह की युति अथवा दृष्टि होने पर गुरु के अशुभ फल में निश्चय ही कमी आयेगी। 

" जैसा मैंने गुरु के लिये कहा कि यह अपना फल अधिकतर शुभ ही देते है."

परन्तु किसी भी रूप से उपरोक्त स्थिति में होने पर इनके अशुभ फल का रौद्र रूप अच्छे से अच्छे व्यक्ति को भयभीत कर देता है। यह अपने कारकत्व भाव में अकेला होने पर कारकत्व दोष से दूषित होते हैं तथा केन्द्र में केन्द्राधिपति दोष से पीड़ित होते है। 

इस लिये यह इन स्थिति के अतिरिक्त पूर्ण रूप से पापी अथवा पीड़ित हो तो इनकी महादशा में तथा इसके साथ इनकी ही अन्तर्दशा में निम्नानुसार फल प्राप्त होते हैं।

मुख्यतः गुरु पत्रिका में वृषभ, मिथुन अथवा कन्या राशि में हो अथवा किसी नीच ग्रहके प्रभाव में हो अथवा गुरु की किसी राशि में कोई नीच या पापी ग्रह बैठा हो अथवा गुरु स्वयं नीचत्व को प्राप्त हो तो जातक को दुर्घटना, अग्नि भय, मानसिक कष्ट या प्रताड़ना, राजदण्ड, आकस्मिक पीड़ा अथवा किसी बड़ी चोरी से हानि का भय होता है। 

इस के अतिरिक्त गुरु किसी त्रिक भाव में हो अथवा त्रिक भाव के स्वामी के साथ हो तो जातक को अत्यन्त कष्ट प्राप्त होते हैं। 

इसमें भी यदि इन भावों का स्वामी कोई पाप ग्रह हो तो फिर अशुभ फल की कोई सीमा नहीं होती है। 
नीचे मैं कई स्थान पर दोनों ग्रह ( गुरु तथा जिसका प्रत्यन्तर हो ) के अशुभ योग होने पर अशुभ फल की चर्चा करूंगा। 

उसमें आप यह अवश्य देख लें कि उस स्थिति में कोई शुभ ग्रह प्रभाव दे रहा है ? 

यदि शुभ की दृष्टि अथवा युति हो तो अवश्य ही अशुभ फल में कमी आयेगी। 

आने वाली कमी का रूप शुभ ग्रह की शक्ति पर निर्भर करेगा। 

इसके अतिरिक्त गुरु की महादशा में गुरु का अन्तर शुभ फल नहीं देता है, इसमें यदि।

1  गुरु द्वितीय भाव में हो तो अवश्य ही राजकीय दण्ड अथवा आर्थिक हानि होती है।

2 गुरु तृतीय अथवा एकादश भाव में अकेला हो तो जातक को पश्चिम दिशा की यात्रा अथवा अन्य कष्ट होते हैं।

3 गुरु यदि किसी केन्द्र भाव में हो तो जातक को राजदण्ड अथवा उच्चाधिकारी के कोप के साथ शारीरिक कष्ट होते हैं तथा मान सम्मान में कमी अथवा संतान पक्ष से पीड़ा होती है।

4 गुरु किसी त्रिकोण में हो तो व्यक्ति को स्त्री वर्ग से कष्ट, राजकीय प्रताड़ना तथा कार्यों में अवरोध के साथ अग्नि या दुर्घटना भय होता है।

5 यदि गुरु किसी त्रिक भाव अर्थात् 6 - 8 अथवा 12 भाव में हो तो व्यक्ति को मानसिक कष्ट के साथ अन्य कष्ट भी प्राप्त होते हैं।

6 गुरु यदि तृतीय अथवा एकादश भाव में शनि के साथ हो तो अवश्य शुभ फल प्राप्त होते हैं। 

इस में भी यदि शनि लग्नेश हो तो फिर शुभ फल की कोई सीमा ही नहीं होती है।

7 गुरु के मारकेश होने पर अर्थात् द्वितीय अथवा सप्तम भाव का स्वामी होने पर जातक को स्वयं मृत्यु तुल्य कष्ट अथवा जीवनसाथी को कष्ट प्राप्त होते हैं।

गुरु की महादशा में अन्य ग्रहों की अंतर्दशा का फल :

गुरु ग्रह की महादशा के उपरोक्त फल गुरु की अन्तर्दशा में प्राप्त हो सकते हैं। 

परन्तु निम्न फल अन्य ग्रह की अन्तर्दशा में ही प्राप्त होते हैं। 

इन फलों का निर्धारण भी आप गुरु के साथ जिस भी ग्रह की अन्तर्दशा हो, उसके बल, उस पर अन्य ग्रह की युति या दृष्टि तथा उस ग्रह का शुभाशुभ देख कर करें।

गुरु में गुरु की अन्तर्दशा मेरे अनुभव में इस दशा में शुभ फल प्राप्त होते हैं। 

इसमें यदि किसी उच्च, मूलात्रकोण, लग्नेश अथवा शुभ ग्रह से द्रष्ट या युत हो तो शुभ फल में वृद्धि होती है। 

समाज में प्रतिष्ठा वृद्धि, परिवार में मांगलिक कार्य, सर्व सुविधा युक्त निवास की प्राप्ति, वाहन - आभूषण की प्राप्ति, प्रत्येक क्षेत्र में मान सम्मान होता जातक के आन्तरिक गुणों की वृद्धि होती है। 

आचार्यों से मेल - मिलाप अधिक होता है तथा मन की इच्छाओं की पूर्ति होती है। 

इसमें गुरु यदि कर्मेश अथवा भाग्येश या सुखेश के प्रभाव में हो तो जातक को संतान सुख के साथ आर्थिक लाभ की प्राप्ति भी होती है। 

गुरु यदि नीच का हो अथवा किसी दुःस्थान में बैठा हो तो अवश्य संतान अथवा जीवनसाथी की हानि, मान - सम्मान में कमी, सभी क्षेत्रों में दुःख व कष्ट तथा व्यापार अथवा कर्म क्षेत्र में हानि होती है।

गुरु में शनि की अन्तर्दशा इस दशा में कोई ग्रह यदि उच्च, मूलत्रिकोण अथवा शुभ ग्रह के प्रभाव में हो तो व्यक्ति को कर्मक्षेत्र में उन्नति, भूमि - भवन व वाहन लाभ, पश्चिम दिशा की यात्रा तथा अपने से उच्च लोगों से मेल - मिलाप अधिक होता है।
 
इसके अतिरिक्त कोई ग्रह नीच, अस्त, शत्रुक्षेत्री अथवा किसी त्रिक भाव में हो तो जातक में अवगुणों की वृद्धि होती है जिसमें लिंग अनुसार अवगुण आते हैं जैसे जातक पुरुष है तो शराब का सेवन आरम्भ कर देता है, वेश्यागमन करता है और स्त्री जातक होने पर परिवार में अलगाव, बुजुर्गों का अपमान जैसे कार्य करती है। 

इसके अतिरिक्त जातक को आर्थिक हानि, मानसिक कष्ट, जीवनसाथी को कष्ट, परिवार में किसी को पीडा, पशुओं को कष्ट, व्ययों में वृद्धि, नेत्र रोग अथवा संतान कष्ट के साथ सभी प्रकार के कष्ट प्राप्त होते हैं।

गुरु में बुध की अन्तर्दशा  इस दशा में दैवज्ञों के विचारों में भिन्नता है। 

एक वर्ग इस दशा को पूर्णतः शुभ बताता है तो दूसरा वर्ग इस दशा को बहुत ही अशुभ बताता है। 

यहां पर मैं अपने अनुभव के आधार पर इस दशा की चर्चा कर रहा है। 

किसी भी ग्रह के उच्च, मूलत्रिकोणी, मित्र क्षेत्री अथवा एक दूसरे से नवपंचम अथवा केन्द्र योग निर्मित करने पर व्यक्ति को चुनाव के माध्यम से किसी सभा की सदस्यता प्राप्त होती है, आर्थिक लाभ प्राप्त होता है। 

संतान अथवा उच्च विद्या प्राप्ति, व्यक्ति का देव पूजन के साथ धर्म में मन लगना तथा कर्मक्षेत्र में लाभ प्राप्त होता है। 

किसी ग्रह के नीच, अस्त, शत्रुक्षेत्री अथवा षडाष्टक योग निर्मित होने पर व्यक्ति को आर्थिक रूप से संकट में मद्यपान में रुचि, वेश्यागमन, जीवनसाथी मरण, कई प्रकार के रोग, समाज में सम्मान में कमी और किसी ग्रह के मारकेश होने पर मृत्युतुल्य कष्ट अथवा मरण होता है। 

यहां मैंने एक बात देखी है कि इसमें ग्रहों के अशुभ होने पर व्यक्ति की भाषा कुछ गन्दी हो जाती है। वह अपशब्दों का प्रयोग अधिक करता है।

गुरु में केतू की अन्तर्दशा  इस दशा में जातक को मिश्रित फलों की प्राप्ति होती है। 

गुरु अथवा केतू के शुभ, उच्च, मूलत्रिकोणी अथवा मित्रक्षेत्री होने पर जातक को धर्म के प्रति अत्यधिक रुचि, मन में शुभ विचार तथा अच्छे कार्यों से समाज में मान अधिक होता है। 

किसी ग्रह के त्रिक भावस्थ होने पर, नीच, अस्त, शत्रुक्षेत्री अथवा ग्रह की अन्य राशि में किसी पाप ग्रह का प्रभाव होने पर जातक के शरीर । 

अथवा शल्यक्रिया से कोई चिन्ह, कारावास भय, आर्थिक हानि, पारिवारिक सदस्यों को कष्ट, किसी गुरु समान व्यक्ति अथवा वृद्ध से विछोह होता है। 

गुरु लग्न में व केतू के नवम भाव में होने पर जातक का मन सन्यास की ओर होता है। 

गुरु से केतु के केन्द्र अथवा त्रिकोण में होने पर जातक को आर्थिक लाभ व व्यवसाय में उन्नति होती है। 

किसी का मारकेश होने पर मृत्यु भी सम्भव है।

गुरु में शुक्र की अन्तर्दशा  इस दशा में जातक को मिश्रित फल की प्राप्ति होती है, क्योंकि यह दोनों ही ग्रह शत्रु हैं। 

इस दशा में दोनों में से कोई भी ग्रह उच्च, मूलत्रिकोणी अथवा शुभ भाव में होने पर जातक को पारिवारिक सुख की प्राप्ति, आर्थिक लाभ, भौतिक सुख प्राप्त होते हैं। 

जातक तालाब, कुआँ आदि का निर्माण करवाता है, इसमें भी यदि कोई ग्रह किसी शुभ केन्द्रेश से युत हो तो जातक को और भी अधिक शुभ फल मिलते हैं। जातक को उच्च वाहन प्राप्ति, आभूषण व रत्नों की प्राप्ति होती है। 

जातक सात्विक जीवन व्यतीत करता है। 

किसी ग्रह के नीच, अस्त, शत्रुक्षेत्री, पाप प्रभाव, दुःस्थान में अथवा षडाष्टक योग निर्मित होने पर आर्थिक हानि, शारीरिक कष्ट, किसी भी प्रकार का बन्धन भय, भौतिक वस्तुओं की हानि, वैवाहिक जीवन से मन उच्चाटन परन्तु घर से बाहर सुख तलाशना जैसे फल प्राप्त होते हैं। 

यदि कोई ग्रह मारकेश हो तथा काल भी मारक हो तो जातक की नृत्यु भी सम्भव है।

गुरु में सर्य की अन्तर्दशा इस दशाकाल में जातक को शुभ फल अधिक प्राप्त होते है। 

ग्रह का उच्च, मूलत्रिकोणी, मित्रक्षेत्री अथवा शुभ भाव में होने पर जातक को उच्च पद की प्राप्ति, समाज में सम्मान वृद्धि, अचानक लाभ, वाहन प्राप्ति, सरकारी नौकरी, पुत्र प्राप्ति किसी महानगर में सर्वसुविधा सम्पन्न निवास प्राप्ति तथा शत्रु परास्त के साथ सभी जातक की इच्छानुसार कार्य करते हैं। 

किसी ग्रह के नीच, अशुभ भावस्थ अधिक पाप प्रभाव में अथवा षडाष्टक योग होने पर जातक का प्रत्येक क्षेत्र में अपमान शिरोरोग पाप कर्म में लीन, आत्म सम्मान की कमी, मन में घबराहट के साथ ज्वर बिगड जाना जैसे फल प्राप्त होते हैं। 

मारकेश होने पर मृत्यु अथवा मृत्युतुल्य कष्ट प्राप्त होते हैं।

गुरु में चन्द्र की अन्तर्दशा यह दशा जातक की अच्छी व्यतीत होती है। 

यदि कोई ग्रह उच्च, मूलत्रिकोणी, मित्रक्षेत्री अथवा शुभभाव या शुभ ग्रह के प्रभाव में हो अथवा दोनों का केन्द्र में होने पर जातक सत्यकार्य में लीन, आर्थिक लाभ, यश में वृद्धि, शत्रु हानि, परिवार वृद्धि अथवा कारोबार में लाभ व उन्नति होती है। 

किसी ग्रह का अशुभ प्रभाव में, नीच, अस्त, शत्रुक्षेत्री, किसी अशुभ भाव अथवा पाप प्रभाव में अथवा षडाष्टक योग होने पर जातक के मन में उदासीनता, अपमान, स्थान परिवर्तन, माता की मृत्यु अथवा कष्ट जैसे फल प्राप्त होते हैं।

गुरु में मंगल की अन्तर्दशा मेरे अनुभव में यह दशा भी जातक की अच्छी जाती है। 

यदि इनमें कोई ग्रह उच्च, मलत्रिकोणी, एक दुसरे से केन्द्र में, शुभ भाव, शुभ ग्रह के प्रभाव में होने पर जातक को भूमि - भवन लाभ, तीर्थयात्रा, नये कार्यो से यश प्राप्ति जैसे फल प्राप्त होते हैं, लेकिन इनमें किसी ग्रह के नीच, अस्त, शत्रुक्षेत्री, त्रिक भाव में अथवा अधिक पाप प्रभाव में होने पर जातक को भाई से विरोध अथवा वियोग, कोई दुर्घटना अथवा शल्य क्रिया, रक्तविकार, अचानक झगड़े, भूमि-भवन नाश, नेत्र रोग, अचानक शल्यक्रिया अथवा गुरु की मृत्यु सम्भव है। 

मंगल अथवा गुरु का मारकेश होने पर जातक को मृत्यु अथवा मृत्युतुल्य कष्ट प्राप्त होते हैं।

गुरु में राहू की अन्तर्दशा इस दशा में राहू यदि 3 - 6 - 11 अथवा 10 वें भाव में हो अथवा दोनों में से कोई भी उच्च, शुभ प्रभाव में हो तो जातक को राज्य सम्मान परन्तु इनमें से किसी ग्रह अचानक धन लाभ विदेश यात्रा, व्यापार में बढ़ोत्तरी होती है। 

परन्तु इसमे से किसी ग्रह का नीच, शत्रु क्षेत्री, पाप प्रभाव में अथवा षडाष्टक योग निर्मित करे तो व्यक्ति को शिरोरोग रोग अथवा पीडा, रोग से शरीर कमजोर होना, अचानक हानि, जेल यात्रा, विद्युत भय, अग्नि भय, सम्मान में हानि अथवा पद मुक्ति जैसे फल प्राप्त होते हैं।

गुरु का प्रत्येक भाव पर दृष्टि फल :

प्रत्येक ग्रह अपने घर से सातवें भाव को पूर्ण दृष्टि से देखता है। 

इसी आधार पर गुरु भी अपने भाव से सातवें भाव को पूर्ण दृष्टि से देखता है। 

इसके साथ ही गुरु अपने से पंचम व नवम भाव को भी पूर्ण दृष्टि से देखता है। 

हम यहां गरु की पूर्ण दृष्टि फल की चर्चा करेंगे।

प्रथम भाव पर  लग्न भाव पर गुरु के पूर्ण दृष्टि डालने से जातक गोरे रंग वाला, धार्मिक स्वभाव का, यश प्राप्त करने वाला, विद्वान तथा कुलीन होता है। 

वह जीवनसाथी के विषय में भी भाग्यशाली होता है। 

उसका जीवनसाथी बहुत ही अच्छे चरित्र का तथा प्रसन्न रहने वाला होता है।

द्वितीय भाव पर धन भाव पर गुरु की दृष्टि से जातक आर्थिक रूप से बहुत सक्षम होता है। 

वाणी भी उसकी मधुर होती है। 

वह सारा धन अपने पैतृक धन को गंवाने के बाद ही कमाता है। 

वह जब कमाना आरम्भ करता है तो फिर बहुत कमाता है। 

वह अपने मित्र वर्ग में प्रिय होता है लेकिन तब तक, जब तक कि वह अपने पिता की सम्पत्ति को उन पर खर्च करता है, लेकिन जब वह स्वयं मेहनत करता है तो फिर वह अपने मित्र वर्ग पर ध्यान नहीं देता है, क्योंकि वह अपनी मेहनत की कमाई को बर्बाद नही होने देना चाहता है। 

तब उसके मित्र भी उसका साथ छोड़ने लगते हैं।

तृतीय भाव पर इस भाव पर गुरु की दृष्टि से जातक के बड़े भाई आर्थिक रूप से सक्षम होते है। 

वह भी स्वयं बहुत पराक्रमी व भाग्यवान होता है। 

भाइयों के सुख से युत तथा अधिकतर प्रवास पर रहने वाला होता है। 

इस स्थिति में मैंने पाया कि उसके भाई जातक की अपेक्षा अधिक धनवान होते हैं। 

जातक को भी भाई से सुख तभी मिलता है जब गुरु पाप प्रभाव में न हो अन्यथा जातक के अपने भाइयों से मतभेद रहते हैं।

चतुर्थ भाव पर  इस भाव पर गुरु की दृष्टि के प्रभाव से जातक बहुत भाग्यशाली होता है। 

वह उच्च वाहन से युक्त होता है, भूमि-भवन का लाभ भी प्राप्त करता है तथा अपने माता - पिता को भी बहुत सम्मान देता है। 

शिक्षा भी अच्छी प्राप्त करता है। 

इस योग पर मेरे शोध के आधार पर बाकी सारी बातें तो ठीक होती हैं लेकिन जातक अपने माता - पिता को नहीं केवल अपनी माता को सम्मान देता है। पिता से तो मानसिक मतभेद होते हैं। 

वह शिक्षा के क्षेत्र में कम ही चल पाता है अर्थात वह कम शिक्षा ग्रहण कर पाता है।

पंचम भाव पर इस भाव पर गुरु की दृष्टि से जातक धनवान, ख्याति प्राप्त करने वाला, पांच पुत्र वाला तथा ऐश्वर्ययुक्त होता है। 

जातक विद्या के क्षेत्र में भी नाम  कमाता है। 

वह बहुत विद्वान होता है तथा व्याख्याता के रूप में ख्याति अर्जित करता है। 

यहां पर मैंने अनुभव किया है कि जातक संतान के मामले में दुर्भाग्यशाली होता है। 

जैसा लिखा है कि पांच पुत्रों का पिता होता है लेकिन मैंने देखा है कि इस गुरु का जातक पुत्र संतान के लिये तरस जाता है। 

यदि जीवनसाथी की पत्रिका के आधार पर पुत्र संतान हो तो अलग बात है। 

इसके साथ ही उसे धन व संतान में से किसी एक का ही सुख प्राप्त होता है।

षष्ठ भाव पर इस घर पर गुरु की दृष्टि से ज्योतिषीय ग्रन्थों के आधार पर जातक चतुर, धूर्त स्वभाव का, सदैव किसी व्याधि से ग्रस्त रहने वाला, अपने धन कोनष्ट करने वाला तथा क्रोधी स्वभाव का होता है। 

मेरे शोध के अनुसार ऐसा जातक निरोगी. अपने शत्रुओं का नाश करने वाला तथा स्वाभिमानी भी होता है।

सप्तम भाव पर  इस भाव को जब गुरु देखता है तो जातक सुन्दर होने के साथ धनवान, यश प्राप्त करने वाला तथा भाग्यशाली होता है। 

मेरे अनुभव में ऐसा जातक बहुत ही व्यावहारिक तथा वैवाहिक जीवन का पूर्ण आनन्द लेने वाला होता है लेकिन इस भाव पर सूर्य की दृष्टि नहीं होनी चाहिये। जातक कुछ व्यभिचारी होता है।

अष्टम भाव पर  इस भाव पर गुरु की दृष्टि से जातक दीर्घायु होता है लेकिन उसे आठवें वर्ष में मृत्युतुल्य कष्ट प्राप्त होता है। 

ऐसे जातक को 24 वर्ष से 27 वर्ष की आयु में विशेष ध्यान रखना चाहिये क्योंकि इस गुरु के रत्ती भर भी पाप प्रभाव में होने से जातक को राजदण्ड अथवा कारावास का भय होता है। 

उसके ऊपर ऐसे आक्षेप लगते हैं कि जो काम उसने किया ही नहीं होता है उसका भी दण्ड भोगना पड़ता है।

नवम भाव पर इस भाव पर गुरु की दृष्टि के प्रभाव से जातक भाग्य तथा धर्म में रुचि रखने वाला होता है। 

ऐसा जातक शास्त्रों को जानने वाला, अच्छे कुल का, दान करने में अग्रणी तथा अच्छी संतान से युक्त होता है। 

यदि गुरु के साथ केतु की भी दृष्टि हो तो जातक सन्यास में रुचि रख सकता है । 

इस के साथ ही जातक को अचानक ऐसे लाभ प्राप्त होते हैं जिसकी उसे आशा न हो।

दशम भाव पर कर्म भाव पर गुरु की दृष्टि से जातक राज्य से लाभ के साथ सम्मान भी प्राप्त करता है तथा पूर्णतः सुखी, धन, यश व संतान पक्ष से भी सुखी रहता है। 

वह भूमि व वाहन सुख भी भोगता है। 

इस गुरु पर मैंने जो शोध किया है उसमें जातक यदि भूमि अथवा भवन अपने नाम से रखता है तो वह शीघ्र ही उनसे हाथ धो बैठता है। 

वाहन सुख तो उसे अवश्य मिलता है परन्तु वाहन सरकारी होता है। 

यहां पर जातक अपने पिता का बहुत सम्मान करता है। 

वह जो भी लाभ प्राप्त करता है वह सब उसे पिता के माध्यम से ही मिलता है।

एकादश भाव पर आय भाव को गुरु यदि पूर्ण दृष्टि से देखे तो जातक अपने जीवन में बहुत धन कमाता है। 

जातक विद्वान होता है एवं एकाधिक पुत्रों का पिता व दीर्घायु प्राप्त करता है, साथ ही कला प्रिय भी होता है। 

मेरे शोध के अनुसार यहां पर उसको संतान की बीमारी पर अधिक धन खर्च करना पड़ता है। 

वह विद्या भी कम ही ग्रहण कर पाता है लेकिन धन बहुत कमाता है। 

उसे अपने बड़े भाई से ही लाभ प्राप्त होता है।

द्वादश भाव पर इस भाव पर गुरु की दृष्टि से जातक अत्यधिक खर्चीले स्वभाव का होता है तथा मानसिक समस्याओं से ग्रस्त रहता है। 

शायद इसी कारण वह सदैव दुःखी नजर आता है। 

इस गुरु की दृष्टि पर मैंने जो शोध किया है उसमें जातक खर्चीला तो होता ही है साथ ही उसका व्यय बीमारी पर अधिक होता है। 

वह नींद की परेशानी से ग्रस्त रहता है। उसे शारीरिक सुख कम मिलता है। 

उसको गुप्त शत्रु अधिक हानि देते हैं तथा शत्रु भी उसके अपने ही होते हैं।

गुरु के द्वारा होने वाले रोग :

गुरु एक आकाश तत्वीय ग्रह है। 

गुरु का हमारे शरीर में चरबी, उदर, यकृत, त्रिदोष में विशेषकर कफ पर तथा रक्त वाहिनियों पर अधिकार रहता है। 

गुरु को ज्योतिष में संतानकारक ग्रह माना गया है। 

जिनकी पत्रिकाओं में गुरु शुभ स्थिति में होता है, वह जातक सदैव इन रोगों से दूर रहता है। 

वह अच्छे विचार का, शारीरिक रूप से हृष्ट-पुष्ट तथा मानसिक रूप से बहुत बली होता है। 

पत्रिका में गुरु यदि पापी अथवा किसी पाप ग्रह से पीड़ित हो तो जातक इन रोगों के अतिरिक्त कर्ण व दंत रोग, अस्थि मज्जा में विकार, वायु विकार, अचानक मूर्छा आ जाना, ज्वार, आंतो की शल्य क्रिया, रक्त विकार के साथ मानसिक कष्ट तथा ऊंचे स्थान से गिरने का भय होता न इन रोगों के साधारणतः गुरु के 4 - 6 - 8 अथवा 12 वें भाव में होने पर गोचरवश इन भावों में आने पर ही होने की सम्भावना अधिक होती है। 

इस के साथ ही ऐसा भी आप न समझें कि यदि आपकी पत्रिका में गुरु पापी है तो यही रोग होंगे। 

रोगों में मुख्य बात यह भी होती है कि गुरु किस भाव किस राशि में स्थित है ? 

यहा पर हम पत्रिका में गुरु किस राशि में होने पर की सम्भावना अधिक होती है, इसकी चर्चा करेंगे। 

आप अपनी पत्रिका में पापी होने पर तुरन्त ही इस निर्णय पर न पहुंच जायें कि आपको यह रोग दोगा आप किसी भी निष्कर्ष पर जाने से पहले अपनी पत्रिका में अन्य योग अवश्य ही होगा, आप किसी भी
भी देख लें।

मेष राशि  में गुरु के होने पर जातक को शिरो रोग अधिक होते हैं। 

यदि इस योग में गुरु पर मंगल अथवा केतू की दृष्टि हो तो किसी दुर्घटना में सिर में बड़ी चोट का योग बन सकता है।

वृषभ राशि में गुरु के प्रभाव से जातक को मुख, कण्ठ, श्वसन तंत्रिका तथा आहार नली में संक्रमण का भय होता है। 

यदि गुरु लग्न में इस राशि में हो तो व्यक्ति के जीवनसाथी को मूत्र संस्थान का संक्रमण तथा स्वयं को उदर विकार की सम्भावना होती है। 

गुरु के पीड़ित अवस्था में ही यह रोग होते हैं, लेकिन मेरे अनुभव में गुरु पीड़ित हो अथवा नहीं, लेकिन इस राशि में वह वाणी विकार के साथ मुख रोग अवश्य देता है।

मिथुन राशि में गुरु व्यक्ति के कंधों व बांहों पर अधिक कष्ट देता है। 

बुध भी यदि पीड़ित हो तो त्वचा विकार तथा रक्त विकार का योग अधिक बन जाता है। 

यदि गुरु अथवा बुध पर कोई पाप ग्रह का प्रभाव हो तो जातक के 32वें वर्ष में किसी दुर्घटना में हाथ कटने का योग भी बन जाता है। 

यहां पर गुरु का बहुत ही अधिक पीड़ित तथा बुध का लग्नेश न होने पर ही यह योग घटित होता है।

कर्क राशि  में गुरु के होने पर जातक को फेफड़ों के रोग, छाती तथा पाचन क्रिया पर असर आता है। 
मैंने देखा है कि यदि गुरु अधिक पीड़ित हो तथा चन्द्र के साथ चतुर्थ भाव व उसका स्वामी भी पीड़ित हो तो जातक कम आयु से ही रक्तचाप का रोगी तथा हृदयाघात का योग अवश्य बनता है। 

यदि लग्न भी कर्क ही हो तो जातक मानसिक कष्ट अधिक पाता है। 

उसे खाने - पीने के मामले में सावधानी रखनी चाहिये। 

अगर केवल चन्द्र व गुरु ही पीड़ित हों तो जातक को गर्मी के मौसम में शरीर में पानी की कमी के कारण कुछ समय अस्पताल में बिताना पड़ता है। 

इस लिये ऐसे जातकों को गर्मी के मौसम में पानी का सेवन अधिक करना चाहिये अन्यथा उसको गर्मी के कारण अचानक मूर्छा आ सकती है।

सिंह राशि में यदि गुरु है तो जातक को उदर विकार के साथ हृदयाघात का भी भय रहता है तथा गर्मी में ऐसे जातक को भी उपरोक्त समस्या आ सकती।

कन्या राशि  में गुरु के होने पर व्यक्ति आंतों के संक्रमण तथा पेट में जलन से अधिक परेशान रहता है। 

यदि मंगल की दृष्टि हो तो जातक को आंतों की भी क्रिया अथवा अपेन्डिक्स जैसे आपरेशन भी हो सकते हैं। 

यदि गुरु के साथ शुक्र भी विराजमान हो तो नपुंसकता अथवा शीघ्रपतन का भय रहता है। 

यदि शनि की दृष्टि आये तो भी यह रोग तो होना ही है।

तुला राशि  में गुरु मूत्र विकार, जनन अंग, गुदा रोग तथा कमर के दर्द परेशान करता है। 

जातक को शीघ्रपतन का रोग अधिक होता है। 

यहां पर मेरा अनुभव है कि इस राशि में गुरु यह रोग देता अवश्य है लेकिन अधिक बली होने की स्थिति में, गुरु यदि सामान्य बली है तो यह रोग कम होते हैं । 

अगर लग्न भी तुला है तो फिर गुरु जितना कम बली होगा, जातक के लिये उतना ही अच्छा है। 

यदि किसी उपरोक्त स्थिति में रोग हो तो वह किसी के भी कहने से गुरु रत्न को धारण न करे
अन्यथा इन रोगों को तो बल मिलेगा ही साथ ही अस्थि भंग का भी योग निर्मित होगा। 

इस स्थिति में गुरु को पूजा - पाठ से शान्त करना उचित होता है....! 

क्योंकि इस लग्न में गुरु जितना अधिक कमजोर होगा, जातक को उतना ही अधिक लाभ मिलेगा।

वृश्चिक राशि में गुरु के होने पर व्यक्ति का पाचन संस्थान खराब रहता है। 

मुख्यत: कब्ज अधिक होती है। 

खट्टी डकार, आहार नली में जलन भी रहती है। 

गुदा रोग भी अधिक होते हैं। 

गुदा रोग भी कब्ज के ही कारण होते हैं। 

यदि मंगल की दृष्टि यहां हो तो फिर गुदा की दो बार शल्य क्रिया तो सामान्य बात है।

धनु राशि में गुरु कमर से निचले हिस्से में अधिक समस्या देता है जिसमें दर्द, स्नायु विकार अथवा संधिवात जैसे रोग होते हैं। 

इस राशि में गुरु यदि लग्न भाव में होता है तो समस्या और अधिक गम्भीर होती है....! 

हालांकि गुरु यहां लग्नेश होता है  लेकिन फिर भी वह यदि किसी दुःस्थान में है तो जातक बहुत शारीरिक कष्ट उठाता
है। 

ऐसे जातकों को खानपान सादा तथा कम करना चाहिये।

मकर राशि में गुरु जातक को कमर तथा पैरों के दर्द से जीवन भर समस्या देता है। 

उसे दीर्घकालीन रोग होते हैं तथा उसके घुटने तो 30 वर्ष की आयु से ही खराब होने लगते हैं। 

स्नायुविकार का योग भी होता है। 

यदि शनि की यहां दृष्टि हो तो रोग कम होते हैं लेकिन पीड़ा तो झेलनी ही होती है।

कुंभ राशि भी शनि की राशि है। 

गुरु के इस राशि में होने पर जातक का कमर से नीचे का हिस्सा बहुत ही कमजोर होता है। 

उसे उदर रोग व वायु विकार के सा?




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विवाह का योग जाने अपनी जन्म कुंडली से कब तक हो जाएगा और उपाय ..


विवाह का योग जाने अपनी जन्म कुंडली से कब तक हो जाएगा और उपाय .....

सप्तमेश एवं पंचमेश एक साथ हो तो प्रेम विवाह का योग बनता है ।

इस कुंडली में सप्तमेश द्वितीय भाव में स्वराशि में विराजमान है 

एवं उसके साथ पंचमेश शनि भी विराजमान है । 

परंतु यहाँ एक समस्या है । मंगल और शनि जब भी एक साथ विराजमान होते हैं तो इसे अच्छा योग नहीं माना जाता है ।

कई ज्योतिष ग्रंथों में इसे विस्फोटक योग बोला गया है । 

यहां पंचमेश और सप्तमेश का संबंध

तो हो गया परंतु शनि मंगल का योग अच्छा नहीं होने के कारण इसका फल प्राप्त नहीं हुआ । 

एक योग को सभी लग्न की कुंडलियों में माना नहीं जा सकता दूसरी बात सप्तम भाव में राहु विराजमान है एवं केतु की दृष्टि है

यह वैवाहिक जीवन के सुख में बहुत ज्यादा परेशानी उत्पन्न कर रहा है जिसके कारण प्रेम विवाह तो क्या सामान्य विवाह भी होने में बहुत ज्यादा समस्या होती है । 

इनका विवाह हुआ एवं विवाह होने के बाद तलाक हो गया । 

शनि यदि सप्तम भाव के स्वामी के साथ संबंध बनाते हैं एवं सप्तमेश तथा शनि में शत्रुता होती है तब विवाह में बहुत ज्यादा विलंब हो जाती है । 

कई लोगों की 40 वर्ष तक भी विवाह नहीं हो पाता है । 

और धीरे - धीरे विवाह की इच्छाएं समाप्त हो जाती हैं । 

इस कुंडली में सप्तमेश शनि के साथ विराजमान है सप्तम भाव में राहु विराजमान है उस पर केतु की दृष्टि है । 

अर्थात शनि राहु केतु के प्रभाव के कारण वैवाहिक जीवन में समस्या हुई ।

इसलिए बचपन में ही जन्म कुंडली विश्लेषण कर ऐसे योग होने पर जो ग्रह परेशानी उत्पन्न कर रहे हैं उनका उपाय पहले से ही प्रारंभ करना चाहिए ।

और अधिक जानकारी जन्म कुंडली परामर्श सलाह उपाय विधि प्रयोग कुंडली विश्लेषण वास्तु हस्तरेखा अंक ज्योतिष एवं रत्ना यंत्र मंत्र तंत्र से जुड़ा हुआ परामर्श के लिए संपर्क करें ...
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પંડારામા પ્રભુ રાજ્યગુરુ 
Web: sarswatijyotish.com 

राजयोग देते हैं सर्वसुख और जीवन के प्रशिक्षक हैं ये तीनों :

सभी ज्योतिष मित्रों को मेरा निवेदन हे आप मेरा दिया हुवा लेखो की कोपी ना करे में किसी के लेखो की कोपी नहीं करता,  किसी ने किसी का लेखो की कोप...