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Monday, July 7, 2025

सूर्य देव , शनि की साढ़े साती :

शनि की साढ़े साती  : 

🪐ज्योतिष- ग्रह- नक्षत्र 🪐 

सूर्य देव :  

 रविवार विशेष - सूर्य देव 


समस्त ब्रह्मांड को प्रकाशित करने वाले भगवान भास्कर न सिर्फ सम्पूर्ण संसार के कर्ताधर्ता है बल्कि नवग्रहों के अधिपति भी माने जाते हैं। 




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सूर्य देव एक ऐसे देव हैं जिनके दर्शन के बिना किसी के भी दिन का आरंभ नहीं होता है। 

रविवार का दिन सूर्य देव को समर्पित है। 

भगवान सूर्य का दिन होने के कारण रविवार को भगवान सूर्य का उपासना बेहद ही पुण्यकारक माना जाता है। 





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सूर्यदेव को हिरण्यगर्भ भी कहा जाता है। 

हिरण्यगर्भ यानी जिसके गर्भ में ही सुनहरे रंग की आभा है। 

इनकी कृपा दृष्टि प्राप्त करने के लिए रविवार के दिन सूर्य भगवान का विधिवत पूजा पाठ करके जल चढ़ाना चाहिए।

ऐसा करने से भगवान सूर्य की कृपा हमारे परिवार पर बनी रहती है। 






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🔆सूर्य- पिता, स्वास्थ्य, यश सम्मान, प्रशासनिक नौकरियां व व्यापार के कारक ग्रह है। 

कुंडली में इनके शुभ होने से इन सभी क्षेत्रों में सफलता प्राप्त होती है।


🔆उदयगामी सूर्य को प्रणाम करना प्रगति की निशानी है। 

इसी लिए सुबह- सुबह स्नान करके उगते सूर्य को देखना चाहिए, उन्हें प्रणाम करना चाहिए। 

इससे शरीर में सकारात्मक ऊर्जा का संचार होता है। 






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🔆सूर्यदेव की पूजा के लिए सूर्योदय से पूर्व उठकर स्नान करें। 

इसके पश्चात् उगते हुए सूर्य का दर्शन करते हुए उन्हें "ॐ घृणि सूर्याय नम:" या फिर "ॐ सूर्याय नमः" कहते हुए जल अर्पित करें। 


🔆सूर्य को दिए जाने वाले जल में केवल लाल, पीले पुष्प मिला सकते हैं, लेकिन इसके अलावा और किसी प्रकार की सामग्री जल में नहीं मिलानी चाहिए क्योंकि इससे जल की पवित्रता भंग होती है।





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🔆अर्घ्य समर्पित करते समय नजरें लोटे के जल की धारा की ओर रखें। 

जल की धारा में सूर्य का प्रतिबिम्ब एक बिन्दु के रूप में जल की धारा में दिखाई देगा।


🔆सूर्य को अर्घ्य समर्पित करते समय दोनों भुजाओं को इतना ऊपर उठाएं कि जल की धारा में सूर्य का प्रतिबिंब दिखाई दे। 


🔆सूर्य देव की सात प्रदक्षिणा करें व हाथ जोड़कर प्रणाम करते हुए सूर्यनारायण के समक्ष आप इन मंत्रों का जाप भी कर सकते है-:





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1- ॐ सूर्याय नम:।


2- ॐ मित्राय नम:।


3- ॐ रवये नम:।


4- ॐ भानवे नम:।


5- ॐ खगाय नम:।


6- ॐ पूष्णे नम:।


7- ॐ हिरण्यगर्भाय नम:।


8- ॐ मारीचाय नम:।


9- ॐ आदित्याय नम:।


10- ॐ सावित्रे नम:।


11- ॐ अर्काय नम:।


12- ॐ भास्कराय नम:।।






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शनि की साढ़े साती  :

शनि की साढ़े साती के कुछ लक्षण दुर्गति परिणाम जाने अपने जन्म कुंडली से....!

 

बहुत सारी घटनाएं हमारे और आपके जीवन में हो रही है जो कि वर्तमान में शनि की अधिक प्रभाव और साडेसाती अधिया की असर के कारण हो रहा है जाने खास लक्षण 


हथेली की रेखाओं का रंग बदल जाना या नीला या काला हो जाना सिर की चमक गायब हो जाना और माथे पर काला रंग दिखना 

 

बात-बात पर गुस्सा आना वाणी और विचारों में बदलाव होना अचानक टेंशन बढ़ना और हमेशा सिर में दर्द रहना 

 

हर काम में असफलता मिलना 

शरीर में कुछ न कुछ कष्ट होना 

 



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अपनों से धोखा मिलना मन मस्तिष्क बिना कारण के गर्म होना घर में पैसा टिकना न होना 

 

शनि की साढ़े साती तीन हिस्सों में होती है और हर हिस्सा लगभग ढाई साल का होता है. शनि साढ़े साती के दौरान, शनि व्यक्ति को जीवन भर के लिए सिख देने का प्रयास करता है. 


शनि साढ़े साती के दौरान शनिदेव की पूजा करने से शनि के दोषों से मुक्ति मिलती है. 


वर्तमान 2025 में मकर राशि कुंभ राशि पर शनि की साडेसाती अधिया का विशेष प्रभाव है जो की आने वाले समय में कर्ज जेल या अन्य धन का नुकसान तथा गुप्त शत्रुओं से 


अधिक पीड़ा तथा कार्य क्षेत्र व्यवसाय आदि में अधिक नुकसान होगा और वर्तमान में हो रहा है या मनोरोग या मानसिक रोग हो सकते हैं 


आप यथाशीघ्र शनि की साडेसाती अढैया की शांति निवारण करें और लाभ में...!


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Monday, June 23, 2025

शनि प्रदोष व्रत परिचय एवं विस्तृत विधि :

शनि प्रदोष व्रत परिचय एवं विस्तृत विधि :


शनि प्रदोष व्रत परिचय एवं विस्तृत विधि :


प्रत्येक चन्द्र मास की त्रयोदशी तिथि के दिन प्रदोष व्रत रखने का विधान है. यह व्रत कृष्ण पक्ष और शुक्ल पक्ष दोनों को किया जाता है. 

सूर्यास्त के बाद के 2 घण्टे 24 मिनट का समय प्रदोष काल के नाम से जाना जाता है. 

प्रदेशों के अनुसार यह बदलता रहता है. सामान्यत: सूर्यास्त से लेकर रात्रि आरम्भ तक के मध्य की अवधि को प्रदोष काल में लिया जा सकता है।





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ऐसा माना जाता है कि प्रदोष काल में भगवान भोलेनाथ कैलाश पर्वत पर प्रसन्न मुद्रा में नृ्त्य करते है. 

जिन जनों को भगवान श्री भोलेनाथ पर अटूट श्रद्धा विश्वास हो, 

उन जनों को त्रयोदशी तिथि में पडने वाले प्रदोष व्रत का नियम पूर्वक पालन कर उपवास करना चाहिए।


यह व्रत उपवासक को धर्म, मोक्ष से जोडने वाला और अर्थ, काम के बंधनों से मुक्त करने वाला होता है. 

इस व्रत में भगवान शिव की पूजन किया जाता है. 

भगवान शिव कि जो आराधना करने वाले व्यक्तियों की गरीबी, मृ्त्यु, दु:ख और ऋणों से मुक्ति मिलती है।


प्रदोष व्रत की महत्ता


शास्त्रों के अनुसार प्रदोष व्रत को रखने से दौ गायों को दान देने के समान पुन्य फल प्राप्त होता है. प्रदोष व्रत को लेकर एक पौराणिक तथ्य सामने आता है कि " एक दिन जब चारों और अधर्म की स्थिति होगी, 

अन्याय और अनाचार का एकाधिकार होगा, मनुष्य में स्वार्थ भाव अधिक होगी. तथा व्यक्ति सत्कर्म करने के स्थान पर नीच कार्यो को अधिक करेगा।


उस समय में जो व्यक्ति त्रयोदशी का व्रत रख, शिव आराधना करेगा, उस पर शिव कृ्पा होगी. 

इस व्रत को रखने वाला व्यक्ति जन्म - जन्मान्तर के फेरों से निकल कर मोक्ष मार्ग पर आगे बढता है. 

उसे उतम लोक की प्राप्ति होती है।


व्रत से मिलने वाले फल


अलग - अलग वारों के अनुसार प्रदोष व्रत के लाभ प्राप्त होते है।


जैसे सोमवार के दिन त्रयोदशी पडने पर किया जाने वाला वर्त आरोग्य प्रदान करता है। 

सोमवार के दिन जब त्रयोदशी आने पर जब प्रदोष व्रत किया जाने पर, उपवास से संबन्धित मनोइच्छा की पूर्ति होती है। 

जिस मास में मंगलवार के दिन त्रयोदशी का प्रदोष व्रत हो, उस दिन के व्रत को करने से रोगों से मुक्ति व स्वास्थय लाभ प्राप्त होता है एवं बुधवार के दिन प्रदोष व्रत हो तो, उपवासक की सभी कामना की पूर्ति होने की संभावना बनती है।


गुरु प्रदोष व्रत शत्रुओं के विनाश के लिये किया जाता है। 

शुक्रवार के दिन होने वाल प्रदोष व्रत सौभाग्य और दाम्पत्य जीवन की सुख - शान्ति के लिये किया जाता है। 

अंत में जिन जनों को संतान प्राप्ति की कामना हो, उन्हें शनिवार के दिन पडने वाला प्रदोष व्रत करना चाहिए। 

अपने उद्देश्यों को ध्यान में रखते हुए जब प्रदोष व्रत किये जाते है, तो व्रत से मिलने वाले फलों में वृ्द्धि होती है।




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व्रत विधि


सुबह स्नान के बाद भगवान शिव, पार्वती और नंदी को पंचामृत और जल से स्नान कराएं। 

फिर गंगाजल से स्नान कराकर बेल पत्र, गंध, अक्षत ( चावल ), फूल, धूप, दीप, नैवेद्य ( भोग ), फल, पान, सुपारी, लौंग और इलायची चढ़ाएं। 

फिर शाम के समय भी स्नान करके इसी प्रकार से भगवान शिव की पूजा करें। 

फिर सभी चीजों को एक बार शिव को चढ़ाएं।

और इसके बाद भगवान शिव की सोलह सामग्री से पूजन करें। 

बाद में भगवान शिव को घी और शक्कर मिले जौ के सत्तू का भोग लगाएं। 

इस के बाद आठ दीपक आठ दिशाओं में जलाएं। 

जितनी बार आप जिस भी दिशा में दीपक रखेंगे, दीपक रखते समय प्रणाम जरूर करें। 

अंत में शिव की आरती करें और साथ ही शिव स्त्रोत, मंत्र जाप करें। रात में जागरण करें।


प्रदोष व्रत समापन पर उद्धापन 


इस व्रत को ग्यारह या फिर 26 त्रयोदशियों तक रखने के बाद व्रत का समापन करना चाहिए. इसे उद्धापन के नाम से भी जाना जाता है।


उद्धापन करने की विधि 


इस व्रत को ग्यारह या फिर 26 त्रयोदशियों तक रखने के बाद व्रत का समापन करना चाहिए. इसे उद्धापन के नाम से भी जाना जाता है।


इस व्रत का उद्धापन करने के लिये त्रयोदशी तिथि का चयन किया जाता है. उद्धापन से एक दिन पूर्व श्री गणेश का पूजन किया जाता है. 

पूर्व रात्रि में कीर्तन करते हुए जागरण किया जाता है. प्रात: जल्द उठकर मंडप बनाकर, मंडप को वस्त्रों या पद्म पुष्पों से सजाकर तैयार किया जाता है. 

"ऊँ उमा सहित शिवाय नम:" मंत्र का एक माला अर्थात 108 बार जाप करते हुए, हवन किया जाता है. 

हवन में आहूति के लिये खीर का प्रयोग किया जाता है।


हवन समाप्त होने के बाद भगवान भोलेनाथ की आरती की जाती है। 

और शान्ति पाठ किया जाता है. अंत: में दो ब्रह्माणों को भोजन कराया जाता है. तथा अपने सामर्थ्य अनुसार दान दक्षिणा देकर आशिर्वाद प्राप्त किया जाता है।


शनि प्रदोष व्रत कथा


सूत जी बोले – 

“पुत्र कामना हेतु यदि, हो विचार शुभ शुद्ध । 

शनि प्रदोष व्रत परायण, करे सुभक्त विशुद्ध ॥”


व्रत कथा


प्राचीन समय की बात है । 

एक नगर सेठ धन - दौलत और वैभव से सम्पन्न था । 

वह अत्यन्त दयालु था । 

उसके यहां से कभी कोई भी खाली हाथ नहीं लौटता था । 

वह सभी को जी भरकर दान - दक्षिणा देता था । 

लेकिन दूसरों को सुखी देखने वाले सेठ और उसकी पत्‍नी स्वयं काफी दुखी थे । 

दुःख का कारण था- उनके सन्तान का न होना । 

सन्तानहीनता के कारण दोनों घुले जा रहे थे । 

एक दिन उन्होंने तीर्थयात्र पर जाने का निश्‍चय किया और अपने काम - काज सेवकों को सोंप चल पडे । 

अभी वे नगर के बाहर ही निकले थे कि उन्हें एक विशाल वृक्ष के नीचे समाधि लगाए एक तेजस्वी साधु दिखाई पड़े । 

दोनों ने सोचा कि साधु महाराज से आशीर्वाद लेकर आगे की यात्रा शुरू की जाए । 

पति - पत्‍नी दोनों समाधिलीन साधु के सामने हाथ जोड़कर बैठ गए और उनकी समाधि टूटने की प्रतीक्षा करने लगे । 

सुबह से शाम और फिर रात हो गई, लेकिन साधु की समाधि नही टूटी । 

मगर सेठ पति - पत्‍नी धैर्यपूर्वक हाथ जोड़े पूर्ववत बैठे रहे । 

अंततः अगले दिन प्रातः काल साधु समाधि से उठे । 

सेठ पति - पत्‍नी को देख वह मन्द - मन्द मुस्कराए और आशीर्वाद स्वरूप हाथ उठाकर बोले- ‘मैं तुम्हारे अन्तर्मन की कथा भांप गया हूं वत्स! मैं तुम्हारे धैर्य और भक्तिभाव से अत्यन्त प्रसन्न हूं।’ 

साधु ने सन्तान प्राप्ति के लिए उन्हें शनि प्रदोष व्रत करने की विधि समझाई और शंकर भगवान की निम्न वन्दना बताई।


हे रुद्रदेव शिव नमस्कार । 

शिव शंकर जगगुरु नमस्कार ॥

हे नीलकंठ सुर नमस्कार । 

शशि मौलि चन्द्र सुख नमस्कार ॥

हे उमाकान्त सुधि नमस्कार । 

उग्रत्व रूप मन नमस्कार ॥

ईशान ईश प्रभु नमस्कार । 

विश्‍वेश्वर प्रभु शिव नमस्कार ॥


तीर्थयात्रा के बाद दोनों वापस घर लौटे और नियमपूर्वक शनि प्रदोष व्रत करने लगे । 

कालान्तर में सेठ की पत्‍नी ने एक सुन्दर पुत्र जो जन्म दिया । 

शनि प्रदोष व्रत के प्रभाव से उनके यहां छाया अन्धकार लुप्त हो गया । 

दोनों आनन्दपूर्वक रहने लगे।” 





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प्रदोषस्तोत्रम् 


।। श्री गणेशाय नमः।। 


जय देव जगन्नाथ जय शङ्कर शाश्वत । 

जय सर्वसुराध्यक्ष जय सर्वसुरार्चित ॥ १॥ 


जय सर्वगुणातीत जय सर्ववरप्रद । 

जय नित्य निराधार जय विश्वम्भराव्यय ॥ २॥ 


जय विश्वैकवन्द्येश जय नागेन्द्रभूषण । 

जय गौरीपते शम्भो जय चन्द्रार्धशेखर ॥ ३॥ 


जय कोट्यर्कसङ्काश जयानन्तगुणाश्रय । 

जय भद्र विरूपाक्ष जयाचिन्त्य निरञ्जन ॥ ४॥ 


जय नाथ कृपासिन्धो जय भक्तार्तिभञ्जन । 

जय दुस्तरसंसारसागरोत्तारण प्रभो ॥ ५॥ 


प्रसीद मे महादेव संसारार्तस्य खिद्यतः । 

सर्वपापक्षयं कृत्वा रक्ष मां परमेश्वर ॥ ६॥ 


महादारिद्र्यमग्नस्य महापापहतस्य च । 

महाशोकनिविष्टस्य महारोगातुरस्य च ॥ ७॥ 


ऋणभारपरीतस्य दह्यमानस्य कर्मभिः । 

ग्रहैः प्रपीड्यमानस्य प्रसीद मम शङ्कर ॥ ८॥ 


दरिद्रः प्रार्थयेद्देवं प्रदोषे गिरिजापतिम् । 

अर्थाढ्यो वाऽथ राजा वा प्रार्थयेद्देवमीश्वरम् ॥ ९॥ 


दीर्घमायुः सदारोग्यं कोशवृद्धिर्बलोन्नतिः । 

ममास्तु नित्यमानन्दः प्रसादात्तव शङ्कर ॥ १०॥ 


शत्रवः संक्षयं यान्तु प्रसीदन्तु मम प्रजाः । 

नश्यन्तु दस्यवो राष्ट्रे जनाः सन्तु निरापदः ॥ ११॥ 


दुर्भिक्षमरिसन्तापाः शमं यान्तु महीतले । 

सर्वसस्यसमृद्धिश्च भूयात्सुखमया दिशः ॥ १२॥ 


एवमाराधयेद्देवं पूजान्ते गिरिजापतिम् । 

ब्राह्मणान्भोजयेत् पश्चाद्दक्षिणाभिश्च पूजयेत् ॥ १३॥ 


सर्वपापक्षयकरी सर्वरोगनिवारणी । 

शिवपूजा मयाऽऽख्याता सर्वाभीष्टफलप्रदा ॥ १४॥ 


॥ इति प्रदोषस्तोत्रं सम्पूर्णम् ॥




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कथा एवं स्तोत्र पाठ के बाद महादेव जी की आरती करें


ताम्बूल, दक्षिणा, जल -आरती 


तांबुल का मतलब पान है। 

यह महत्वपूर्ण पूजन सामग्री है। 

फल के बाद तांबुल समर्पित किया जाता है। 

ताम्बूल के साथ में पुंगी फल ( सुपारी ), लौंग और इलायची भी डाली जाती है । 

दक्षिणा अर्थात् द्रव्य समर्पित किया जाता है। 

भगवान भाव के भूखे हैं। 

अत: उन्हें द्रव्य से कोई लेना - देना नहीं है। 

द्रव्य के रूप में रुपए, स्वर्ण, चांदी कुछ भी अर्पित किया जा सकता है।


आरती पूजा के अंत में धूप, दीप, कपूर से की जाती है। 

इसके बिना पूजा अधूरी मानी जाती है। 

आरती में एक, तीन, पांच, सात यानि विषम बत्तियों वाला दीपक प्रयोग किया जाता है।




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भगवान शिव जी की आरती


ॐ जय शिव ओंकारा,भोले हर शिव ओंकारा।

ब्रह्मा विष्णु सदा शिव अर्द्धांगी धारा ॥ ॐ हर हर हर महादेव...॥


एकानन चतुरानन पंचानन राजे।

हंसानन गरुड़ासन वृषवाहन साजे ॥ ॐ हर हर हर महादेव..॥


दो भुज चार चतुर्भुज दस भुज अति सोहे।

तीनों रूपनिरखता त्रिभुवन जन मोहे ॥ ॐ हर हर हर महादेव..॥


अक्षमाला बनमाला मुण्डमाला धारी।

चंदन मृगमद सोहै भोले शशिधारी ॥ ॐ हर हर हर महादेव..॥


श्वेताम्बर पीताम्बर बाघम्बर अंगे।

सनकादिक गरुणादिक भूतादिक संगे ॥ ॐ हर हर हर महादेव..॥


कर के मध्य कमंडलु चक्र त्रिशूल धर्ता।

जगकर्ता जगभर्ता जगपालन करता ॥ ॐ हर हर हर महादेव..॥


ब्रह्मा विष्णु सदाशिव जानत अविवेका।

प्रणवाक्षर के मध्ये ये तीनों एका ॥ ॐ हर हर हर महादेव..॥


काशी में विश्वनाथ विराजत नन्दी ब्रह्मचारी।

नित उठि दर्शन पावत रुचि रुचि भोग लगावत महिमा अति भारी ॥ ॐ हर हर हर महादेव..॥


लक्ष्मी व सावित्री, पार्वती संगा ।

पार्वती अर्धांगनी, शिवलहरी गंगा ।। ॐ हर हर हर महादेव..।।


पर्वत सौहे पार्वती, शंकर कैलासा।

भांग धतूर का भोजन, भस्मी में वासा ।। ॐ हर हर हर महादेव..।।


जटा में गंगा बहत है, गल मुंडल माला।

शेष नाग लिपटावत, ओढ़त मृगछाला ।। ॐ हर हर हर महादेव..।।


त्रिगुण शिवजीकी आरती जो कोई नर गावे।

कहत शिवानन्द स्वामी मनवांछित फल पावे ॥ ॐ हर हर हर महादेव..॥


ॐ जय शिव ओंकारा भोले हर शिव ओंकारा

ब्रह्मा विष्णु सदाशिव अर्द्धांगी धारा ।। ॐ हर हर हर महादेव।।





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कर्पूर आरती


कर्पूरगौरं करुणावतारं, संसारसारम् भुजगेन्द्रहारम्।

सदावसन्तं हृदयारविन्दे, भवं भवानीसहितं नमामि॥


मंगलम भगवान शंभू

मंगलम रिषीबध्वजा ।

मंगलम पार्वती नाथो

मंगलाय तनो हर ।।




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मंत्र पुष्पांजलि 


मंत्र पुष्पांजली मंत्रों द्वारा हाथों में फूल लेकर भगवान को पुष्प समर्पित किए जाते हैं तथा प्रार्थना की जाती है। 

भाव यह है कि इन पुष्पों की सुगंध की तरह हमारा यश सब दूर फैले तथा हम प्रसन्नता पूर्वक जीवन बीताएं।


ॐ यज्ञेन यज्ञमयजंत देवास्तानि धर्माणि प्रथमान्यासन्।


ते हं नाकं महिमान: सचंत यत्र पूर्वे साध्या: संति देवा:


ॐ राजाधिराजाय प्रसह्ये साहिने नमो वयं वैश्रवणाय कुर्महे स मे कामान्कामकामाय मह्यम् कामेश्वरो वैश्रवणो ददातु।

कुबेराय वैश्रवणाय महाराजाय नम:





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ॐ स्वस्ति साम्राज्यं भौज्यं स्वाराज्यं वैराज्यं

पारमेष्ठ्यं राज्यं माहाराज्यमाधिपत्यमयं समंतपर्यायी सार्वायुष आंतादापरार्धात्पृथिव्यै समुद्रपर्यंता या एकराळिति तदप्येष श्लोकोऽभिगीतो मरुत: परिवेष्टारो मरुत्तस्यावसन्गृहे आविक्षितस्य कामप्रेर्विश्वेदेवा: सभासद इति।


ॐ विश्व दकचक्षुरुत विश्वतो मुखो विश्वतोबाहुरुत विश्वतस्पात संबाहू ध्यानधव धिसम्भत त्रैत्याव भूमी जनयंदेव एकः।

ॐ तत्पुरुषाय विद्महे महादेवाय धीमहि

तन्नो रुद्रः प्रचोदयात्॥


नाना सुगंध पुष्पांनी यथापादो भवानीच

पुष्पांजलीर्मयादत्तो रुहाण परमेश्वर

ॐ भूर्भुव: स्व: भगवते श्री सांबसदाशिवाय नमः। मंत्र पुष्पांजली समर्पयामि।।


प्रदक्षिणा


नमस्कार, स्तुति -प्रदक्षिणा का अर्थ है परिक्रमा। 

आरती के उपरांत भगवन की परिक्रमा की जाती है, परिक्रमा हमेशा क्लॉक वाइज ( clock - wise ) करनी चाहिए। 

स्तुति में क्षमा प्रार्थना करते हैं, क्षमा मांगने का आशय है कि हमसे कुछ भूल, गलती हो गई हो तो आप हमारे अपराध को क्षमा करें।



 

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यानि कानि च पापानि जन्मांतर कृतानि च। 

तानि सवार्णि नश्यन्तु प्रदक्षिणे पदे - पदे।।


अर्थ: जाने अनजाने में किए गए और पूर्वजन्मों के भी सारे पाप प्रदक्षिणा के साथ - साथ नष्ट हो जाए।

पंडारामा प्रभु राज्यगुरु


Sunday, May 25, 2025

भारतीय वैदिक ज्योतिष मे रोहिणी नक्षत्र के जातक , कैसे शुरू हुए कृष्ण और शुक्ल पक्ष , भारतीय वैदिक ज्योतिष मे कृतिका नक्षत्र के जातक

भारतीय वैदिक ज्योतिष मे रोहिणी नक्षत्र के जातक  , कैसे शुरू हुए कृष्ण और शुक्ल पक्ष , भारतीय वैदिक ज्योतिष मे कृतिका नक्षत्र के जातक :


भारतीय वैदिक ज्योतिष मे रोहिणी नक्षत्र के जातक :


राशिफल में रोहिणी नक्षत्र 40.00 अंशों से 53.20 अंशों के मध्य स्थित हैं। रोहिणी के पर्यायवाची नाम हैं-विधि, विरंचि, शंकर अरबी में इसे अल्दे वारान कहते हैं।


रोहिणी नक्षत्र के साथ अनेक पौराणिक कथाएं जुड़ी हुई हैं। कहीं उसे कृष्ण के अग्रज बलराम की मां कहा गया है तो कहीं लाल रंग की गाय । 


उसे कश्यप ऋषि की पुत्री, चंद्रमा की पत्नी भी माना गया है।




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रोहिणी की आकृति स्थ की भांति आंकी गयी है। 

उसमें कितने तारे हैं, इस विषय में मतभेद हैं। 

सामान्यतः रोहिणी नक्षत्र में पांच तारों की स्थिति मानी गयी है। 

दक्षिण भारत के ज्योतिषी रोहिणी में बियालिस तारों की उपस्थिति मानते हैं। 

उनके लिए रोहिणी वट वृक्ष स्वरूप का है।


यह नक्षत्र वृष राशि ( स्वामी शुक्र ) के अंतर्गत आता है। 

रोहिणी के देवता ब्रह्मा हैं और अधिपति ग्रह-चंद्र।


गण: मनुष्य योनिः सर्प व नाड़ी: अंत्या चरणाक्षर हैं- 

ओ, वा, वी, वू रोहिणी नक्षत्र में जातक सामान्यतः छरहरे, आकर्षक नेत्र एवं चुम्बकीय व्यक्तित्व वाले होते हैं। 

वे भावुक हृदय होते हैं और अक्सर भावावेग में ही निर्णय करते हैं। 

उन्हें तुनुकमिजाज भी कहा जा सकता है और उनका हठ लोगों को परेशान कर देता है। 

उनमें आत्म लुब्धता की भावना भी होती हैं। 

वे औरों पर तत्काल भरोसा कर लेते हैं और धोखा भी खाते हैं। 

लेकिन यह सब उनकी सत्यनिष्ठता में कोई कमी नहीं लाता।




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ऐसे जातक वर्तमान में ही जीते हैं, कल की चिंता से सर्वथा मुक्त उनका जीवन उतार-चढ़ाव से भरा रहता है। 

वे हर कार्य निष्ठा से संपन्न करना चाहते हैं, पर अधैर्य उन्हें कोई भी कार्य पूरा नहीं करने देता। 

उनकी ऊर्जा बंट सी जाती है। 

वे एक को साधने की बजाय सबको साधने की कोशिश करते हैं, लेकिन ऐसे जातकों को यह उक्ति याद रखनी चाहिए कि एक ही साधे सब सधे, सब साधे सब जाय! यदि वे अधैर्य त्याग कर संयमित होकर कार्य करें तो जीवन में यशस्वी भी हो सकते हैं।


युवावस्था उनके लिए सतत् संघर्ष लेकर आती है। 

आर्थिक समस्याओं के अतिरिक्त स्वास्थ्य की गड़बड़ी भी उन्हें परेशान किये रहती है। 

अड़तीस वर्ष की अवस्था के बाद ही जीवन में स्थिरता आती है।


ऐसे जातक माता के प्रति विशेष आसक्त होते हैं। 

मातृपक्ष से ही उन्हें लाभ भी होता है। 

पिता की ओर से उन्हें कोई विशेष लाभ नहीं होता ।




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ऐसे जातकों में यह भी देखा गया है कि जरूरत पड़ने पर वे तमाम रीति-रिवाजों और मान्यताओं को तिलांजलि भी देते हैं। 

ऐसे जातकों का वैवाहिक जीवन भी विशेष सुखद नहीं बताया गया है।


रोहिणी नक्षत्र में जन्मे जातक रक्त संबंधी विकारों के शिकार हो सकते हैं- 

यथा रक्त का मधुमेह आदि । 

रोहिणी नक्षत्र में जन्मी जातिकाएं भी सुंदर एवं आकर्षक व्यक्तित्व वाली होती हैं। 

वे सद्-व्यवहार वाली होती हैं तथापि प्रदर्शन- प्रिय भी, रोहिणी नक्षत्र में जन्मे जातकों की तरह वे भी तुनुकमिजाजी के कारण दुःख उठाती हैं। 

वे व्यवहारिक होती हैं, अतः वे थोड़े से प्रयत्न से अपनी इस आदत पर काबू पा सकती हैं। 

ऐसी जातिकाएं प्रत्येक कार्य को भली भांति करने में सक्षम होती हैं। 

फलतः उनका पारिवारिक जीवन भी सुखी होता है। 

लेकिन पूर्ण वैवाहिक एवं पारिवारिक सुख प्राप्त करने के लिए उन्हें अपने ही स्वभाव पर अंकुश लगाने की सलाह दी जाती है। 

ऐसी जातिकाओं का स्वास्थ्य प्रायः ठीक ही रहता है।


रोहिणी नक्षत्र के प्रथम चरण का स्वामी मंगल, द्वितीय चरण का शुक्र, तृतीय चरण का बुध एवं चतुर्थ चरण का स्वयं चंद्र होता है।


क्रमशः... आगे के लेख मे मृगशिरा नक्षत्र के विषय मे विस्तार से वर्णन किया जाएगा।




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कैसे शुरू हुए कृष्ण और शुक्ल पक्ष :


पंचांग के अनुसार हर माह में तीस दिन होते हैं और इन महीनों की गणना सूरज और चंद्रमा की गति के अनुसार की जाती है। 

चन्द्रमा की कलाओं के ज्यादा या कम होने के अनुसार ही महीने को दो पक्षों में बांटा गया है जिन्हे कृष्ण पक्ष या शुक्ल पक्ष कहा जाता है।

पूर्णिमा से अमावस्या तक बीच के दिनों को कृष्णपक्ष कहा जाता है, वहीं इसके उलट अमावस्या से पूर्णिमा तक का समय शुक्लपक्ष कहलाता है। 

दोनों पक्ष कैसे शुरू हुए उनसे जुड़ी पौराणिक कथाएं भी हैं।


कृष्ण और शुक्ल पक्ष से जुड़ी कथा :





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इस तरह हुई कृष्णपक्ष की शुरुआत :


पौराणिक ग्रंथों के अनुसार दक्ष प्रजापति ने अपनी सत्ताईस बेटियों का विवाह चंद्रमा से कर दिया। 

ये सत्ताईस बेटियां सत्ताईस स्त्री नक्षत्र हैं और अभिजीत नामक एक पुरुष नक्षत्र भी है। 

लेकिन चंद्र केवल रोहिणी से प्यार करते थे। 

ऐसे में बाकी स्त्री नक्षत्रों ने अपने पिता से शिकायत की कि चंद्र उनके साथ पति का कर्तव्य नहीं निभाते। 

दक्ष प्रजापति के डांटने के बाद भी चंद्र ने रोहिणी का साथ नहीं छोड़ा और बाकी पत्नियों की अवहेलना करते गए। तब चंद्र पर क्रोधित होकर दक्ष प्रजापति ने उन्हें क्षय रोग का शाप दिया। 

क्षय रोग के कारण सोम या चंद्रमा का तेज धीरे-धीरे कम होता गया। 

कृष्ण पक्ष की शुरुआत यहीं से हुई। 


ऐसे शुरू हुआ शुक्लपक्ष :


कहते हैं कि क्षय रोग से चंद्र का अंत निकट आता गया। 

वे ब्रह्मा के पास गए और उनसे मदद मांगी। तब ब्रह्मा और इंद्र ने चंद्र से शिवजी की आराधना करने को कहा। 

शिवजी की आराधना करने के बाद शिवजी ने चंद्र को अपनी जटा में जगह दी। 

ऐसा करने से चंद्र का तेज फिर से लौटने लगा। 

इससे शुक्ल पक्ष का निर्माण हुआ। 

चूंकि दक्ष ‘प्रजापति’ थे। 

चंद्र उनके शाप से पूरी तरह से मुक्त नहीं हो सकते थे। 

शाप में केवल बदलाव आ सकता था। 

इस लिए चंद्र को बारी-बारी से कृष्ण पक्ष और शुक्ल पक्ष में जाना पड़ता है। 

दक्ष ने कृष्ण पक्ष का निर्माण किया और शिवजी ने शुक्ल पक्ष का।




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कृष्ण पक्ष और शुक्ल पक्ष के बीच अंतर :


जब हम संस्कृत शब्दों शुक्ल और कृष्ण का अर्थ समझते हैं, तो हम स्पष्ट रूप से दो पक्षों के बीच अंतर कर सकते हैं। 

शुक्ल उज्ज्वल व्यक्त करते हैं, जबकि कृष्ण का अर्थ है अंधेरा।


जैसा कि हमने पहले ही देखा, शुक्ल पक्ष अमावस्या से पूर्णिमा तक है, और कृष्ण पक्ष, शुक्ल पक्ष के विपरीत, पूर्णिमा से अमावस्या तक शुरू होता है।


कौन सा पक्ष शुभ है ?


धार्मिक मान्यता के अनुसार, लोग शुक्ल पक्ष को आशाजनक और कृष्ण पक्ष को प्रतिकूल मानते हैं। 

यह विचार चंद्रमा की जीवन शक्ति और रोशनी के संबंध में है।


भारतीय वैदिक ज्योतिष शास्त्र के अनुसार शुक्ल पक्ष की दशमी से लेकर कृष्ण पक्ष की पंचम तिथि तक की अवधि ज्योतिषीय दृष्टि से शुभ मानी जाती है। 

इस समय के दौरान चंद्रमा की ऊर्जा अधिकतम या लगभग अधिकतम होती है - जिसे ज्योतिष में शुभ और अशुभ समय तय करने के लिए महत्वपूर्ण माना जाता है।




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भारतीय वैदिक ज्योतिष मे कृतिका नक्षत्र के जातक :


कृत्तिका नक्षत्र राशि फल में 26.40 से 40.00 अंशों के मध्य स्थित है। 

कृत्तिका के पर्यायवाची नाम हैं- हुताशन, अग्नि, बहुला अरबी में इसे अथ थुरेया' कहते हैं। 

इस नक्षत्र में छह तारों की स्थिति मानी गयी है। देवता अग्नि एवं स्वामी गुरु सूर्य है। 

कृत्तिका प्रथम चरण मेष राशि ( स्वामी : मंगल ) एवं शेष तीन चरण वृष राशि ( स्वामी: शुक्र ) में आते हैं।


गणः राक्षस, योनिः मेष एवं नाड़ी: अंत है। 

चरणाक्षर हैं: अ, इ, उ, ए ।


कृत्तिका नक्षत्र में जन्मे जातक मध्यम कद, चौड़े कंधे तथा सुगठित मांसपेशियों वाले होते हैं। 

ऐसे जातक अत्यंत बुद्धिमान, अच्छे सलाहकार, आशावादी कठिन परिश्रमी तथा एक तरह हठी भी होते हैं। 

वे वचन के पक्के तथा समाज की सेवा भी करना चाहते हैं। 

वे येन-केन-प्रकारेण अर्थ, यश नहीं प्राप्त करना चाहते, न तो अवैध मागों का अवलंबन करते हैं, न किसी की दया' पर आश्रित रहना चाहते हैं। 

उनमें अहं कुछ अधिक होता हैं, फलतः वे अपने किसी भी कार्य में कोई त्रुटि नहीं देख पाते। 

वे परिस्थितियों के अनुसार ढलना नहीं जानते। 

तथापि ऐसे जातक का • सार्वजनिक जीवन यशस्वी होता है। 

लेकिन अत्यधिक ईमानदारी भरा व्यवहार उनके पतन का कारण बन जाता है।





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ऐसे जातकों को सत्तापक्ष से लाभ मिलता है। 

वे चिकित्सा या इंजीनियरिंग के अलावा ट्रेजरी विभाग में भी सफल हो सकते हैं, विशेषकर सूत निर्यात, औषध या अलंकरण वस्तुओं के व्यापार में सामान्यतः जन्मभूमि से दूर ही उनका उत्कर्ष होता है।


ऐसे जातकों का वैवाहिक जीवन सुखी बीतता है। 

पत्नी गुणवती, गृह कार्य में दक्ष तथा सुशील होती है। 

प्रायः उनकी पत्नी उनके परिवार की पूर्व परिचित ही होती है। 

प्रेम विवाह के भी सकेत मिलते हैं।


ऐसे जातकों का स्वास्थ्य भी सामान्यतः ठीक ही रहता है तथापि उन्हें दंत-पीडा, नेत्र-विकार, क्षय, बवासीर आदि रोग जल्दी ही पकड़ सकते हैं।


कृतिका नक्षत्र में जन्मी जातिकाएं मध्यम कद की बहुत रूपवती तथा साफ-सफाई पसंद होती हैं। 

वे अनावश्यक रूप से किसी से दबना' पसंद नहीं करतीं, फलतः जाने-अनजाने उनका स्वभाव कलह पैदा करने वाला बन जाता है। 

उनमें संगीत, कला के प्रति रुचि होती है तथा वे शिक्षिका का कार्य बखूबी कर सकती हैं। 

कृत्तिका के प्रथम चरण में जन्मी जातिकाएं उच्च अध्ययन में सफल होती हैं तथा प्रशासक, चिकित्सक, इंजीनियर आदि भी बन सकती हैं। कृत्तिका नक्षत्र में जन्मी जातिकाओं का वैवाहिक जीवन पूर्णतः सुखी नहीं रह पाता। 

पति से विलगाव या कभी-कभी प्रजनन क्षमता की हीनता भी इसका एक कारण हो सकती है। 

कृत्तिका के विभिन्न चरणों के स्वामी इस प्रकार हैं: प्रथम एवं चतुर्थ चरण- गुरु, द्वितीय एवं तृतीय चरण-शनि।


क्रमशः... आगे के लेख मे रोहिणी नक्षत्र के विषय मे विस्तार से वर्णन किया जाएगा।

पंडारामा प्रभु राज्यगुरु ज्योतिषी 

सूर्य देव , शनि की साढ़े साती :

शनि की साढ़े साती  :  🪐ज्योतिष- ग्रह- नक्षत्र 🪐   सूर्य देव :    रविवार विशेष - सूर्य देव  समस्त ब्रह्मांड को प्रकाशित करने वाले भगवान भास...