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Tuesday, July 22, 2025

राजयोग देते हैं सर्वसुख और जीवन के प्रशिक्षक हैं ये तीनों :

सभी ज्योतिष मित्रों को मेरा निवेदन हे आप मेरा दिया हुवा लेखो की कोपी ना करे में किसी के लेखो की कोपी नहीं करता,  किसी ने किसी का लेखो की कोपी किया हो तो वाही विद्या आगे बठाने की नही हे कोपी करने से आप को ज्ञ्नान नही मिल्त्ता भाई और आगे भी नही बढ़ता , आप आपके महेनत से तयार होने से बहुत आगे बठा जाता हे धन्यवाद ........
जय द्वारकाधीश

राजयोग देते हैं सर्वसुख और जीवन के प्रशिक्षक हैं ये तीनों :


जन्मपत्री में बलवान ग्रह और मजबूत भाव बनाते हैं राजयोग और देते हैं सर्वसुख...!




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श्री वैदिक ज्योतिष शास्त्र अनुसार  किसी की भी जन्मपत्री में ग्रह बलवान हों और भाग्य आदि भाव मजबूत हो, तो व्यक्ति को जीवन का सब सुख स्वतः ही प्राप्त हो जाता है। 


श्री वैदिक ज्योतिष शास्त्र में ग्रह और भाव की स्थिति का आकलन करने के लिए अनेक नियम हैं !


जिनको ध्यान में रखकर यह पता लगाया जाता है कि जीवन में सुख और दुःख का क्या अनुपात है।


हम सभी जानते हैं, जन्मपत्री में बारह घर होते हैं, जिनको भाव भी कहा जाता है, इन्हीं बारह भाव में जन्म से लेकर मृत्यु तक जीवन की समस्त घटनाऐं छिपी हुई होती हैं !

जिन्हें ज्योतिषी ग्रहों की चाल एवं ज्योतिष के अनेक नियमों एवं सिद्धान्तों द्वारा फलादेश के रूप में उजागर करते हैं।

एक मजबूत ग्रह और भाव दे सकते हैं अच्छे परिणाम-  

श्री वैदिक ज्योतिष शास्त्र में कुछ बुनियादी नियम हैं, जिनसे किसी भी ग्रह की ताकत या मजबूती के बारे में निश्चित रूप से जाना जा सकता है। 

जन्मकुंडली में एक सशक्त भाव व्यक्ति को जीवन में सुरक्षा, स्थिरता और प्रगति की दिशा में सहारा प्रदान करता है। 

जीवन में विकास और विस्तार की संभावनाएं तब बढ़ती हैं जब जन्मकुंडली में घर की स्थिति मजबूत हो। 

किसी भाव की मजबूती देखने के लिए इस प्रकार विचार करना चाहिए। 

कोई भी ग्रह तभी मजबूत होता है, जब वह निम्न शर्ते पूरी करता है। 

किसी भी भाव का स्वामी, केन्द्र या त्रिकोण में स्थित हो अथवा केन्द्र एवं त्रिकोण का स्वामी उसी भाव में स्थित हो। 

यदि कोई ग्रह केन्द्र भावों में या त्रिकोण भावों में स्थित हो अथवा शुभ ग्रहों के बीच में स्थित हो तो ऐसी अवस्था के कारण उस भाव अथवा ग्रह से संबंधित शुभ फल जातक को प्राप्त होते हैं। 

इसी प्रकार ग्रह अपनी उच्च राशि, मूल त्रिकोण या मित्र राशि में स्थित हो।


भाव और उसका स्वामी शुभ ग्रहों के मध्य में स्थित हो।


भाव और उसके स्वामी को शुभ ग्रह की दृष्टि मिलती हो।


लग्न का स्वामी लग्नेश मजबूत हो, दसवें भाव के स्वामी या अन्य शुभ ग्रहों के साथ युति हो।


यदि कोई ग्रह अपने स्वयं के घर में स्थित हो या उस पर पूर्ण दृष्टि रखता हो।


ग्रह या तो शुभ ग्रह के साथ किसी भाव में स्थित हो या उसे उसकी शुभ दृष्टि प्राप्त हो रही है।

यदि कोई ग्रह नवमांश कुंडली में वर्गोत्तम स्थिति में हो, तो ऐसी स्थिति में उस ग्रह एवं भाव से संबंधित शुभ फल व्यक्ति को उस ग्रह की महादशा, अन्तर्दशा, प्रत्यन्तर्दशा, गोचर आदि के कार्यकाल में मिलती है। 


इसी को समझकर ज्योतिर्विद फलादेश करते हैं।


जीवन के प्रशिक्षक हैं ये तीनों : 

शनि की मेहनत, राहु की चतुराई और केतु का वैराग्य, जीवन के प्रशिक्षक हैं ये तीनों !

ज्योतिष शास्त्र में जिन नौ ग्रहों का वर्णन किया गया है, उनमें छाया ग्रह राहु - केतु का भी 
विशेष महत्व है। 


जहां शनि देव व्यक्ति को परिश्रम कराते हैं, राहु चतुराई देता है, वहीं केतु वैराग्य और मोक्ष 
दिलाता है। 


शनि, राहु और केतु को आमतौर पर दुख और कष्ट का कारक माना जाता है, लेकिन यदि 
ये जन्मकुंडली में मजबूत हों तो राजयोग के समान फल देते हैं।


  1. शनि कराता है मेहनत
  2. राहु देता है चतुराई
  3. केतु वैराग्य की ओर ले जाकर दिलाता है मोक्ष

शनि के साथ अक्सर राहु - केतु का नाम आता है। 

आमतौर पर शनि, राहु, केतु इन तीनों को दुःख एवं कष्ट का कारक समझा जाता है, जब कि 

ये तीनों जन्मकुंडली में बलवान हों, तो राजयोग के समान फल देते हैं। 

जिस प्रकार राहु और शनि के बीच ज्यादा समानताएं होती हैं, उसी प्रकार केतु और मंगल के 

बीच में भी एक विशिष्ट संबंध ज्योतिर्विदों ने माना है।

ज्योतिष शास्त्र के अनुसार सभी ग्रह कर्मों के आधार पर ही फल देते हैं। 

नवग्रहों में शनिदेव को दंडनायक का पद प्राप्त है, जो व्यक्ति को उसके पूर्व जन्म के कर्मों के 
अनुसार पुरस्कार - दण्ड दोनों देते हैं। 

छाया ग्रह राहु - केतु का फल भी पूर्वजन्म के अनुसार व्यक्ति को मिलता है। 

राहु व्यक्ति के पूर्व जन्म के गुणों एवं विशेषताओं के आधार पर शुभाशुभ फल देता है। 

आमतौर पर एक आदमी सोचता है कि शनि, राहु, केतु ये तीनों दुःख, कष्ट, रोग एवं आर्थिक परेशानी देने वाले होते हैं पर ऐसा सबकी जन्मकुंडली में नहीं होता। 

यदि जन्मकुंडली में ये तीनों शुभ स्थिति में हैं तो जातक को लाभ में कमी नहीं होती। 

ये तीनों व्यक्ति को बौद्धिक एवं तकनीकी तौर पर कुशल बना सकते हैं, जिससे इन्हें जीवन में सफलताएं मिलती हैं।

जहां शनि एक पिंड के रूप में मौजूद है, वहीं राहु - केतु छाया ग्रह हैं। 

राहु - केतु की अपनी कोई राशि भी नहीं है इस लिए ये जिस राशि पर बैठते हैं उस पर अपना अधिकार कर लेते हैं। 

ज्योतिष शास्त्र के अनुसार राहु वृष राशि में उच्च का होता है और वृश्चिक राशि में नीच का। 

राहु - केतु के बारे में ज्योतिषियों में मतांतर है, कुछ ज्योतिषी राहु को मिथुन राशि में उच्च और धनु राशि में नीच का मानते हैं, केतु को धनु में उच्च का मिथुन में नीच का मानते हैं।

ज्योतिष शास्त्र में बताया गया है कि चूंकि शनि देव की गति धीमी है, इसलिए इसका शुभाशुभ फल जातक को धीरे - धीरे मिलता है। 

राहु - केतु अचानक फल देते हैं, अगर राहु एक पल में जातक को ऊंचाइयों पर पहुंचा सकता है तो अगले ही पल उसे कंगाल बनाने की क्षमता भी रखता है। 

जबकि शनि देव जातक को परिश्रम एवं लगन तथा ईमानदारी से आगे बढ़ने की प्रेरणा देते हैं। 

शनि उन्हीं जातकों का साथ देते हैं, जो जीवन में सच बोलते हैं, पर राहु चतुराई और आसान तरीकों से सफलता पाने का विचार उत्पन्न कराता है।
!!!!! शुभमस्तु !!!

🙏हर हर महादेव हर...!!
जय माँ अंबे ...!!!🙏🙏

पंडित राज्यगुरु प्रभुलाल पी. वोरिया क्षत्रिय राजपूत जड़ेजा कुल गुर: -
श्री सरस्वति ज्योतिष कार्यालय
PROFESSIONAL ASTROLOGER EXPERT IN:- 
-: 1987 YEARS ASTROLOGY EXPERIENCE :-
(2 Gold Medalist in Astrology & Vastu Science) 
" Opp. Shri Satvara vidhyarthi bhuvn,
" Shri Aalbai Niwas "
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आप इसी नंबर पर संपर्क/सन्देश करें...धन्यवाद.. 
नोट ये मेरा शोख नही हे मेरा जॉब हे कृप्या आप मुक्त सेवा के लिए कष्ट ना दे .....
जय द्वारकाधीश....
जय जय परशुरामजी...🙏🙏🙏


Monday, July 7, 2025

सूर्य देव , शनि की साढ़े साती :

शनि की साढ़े साती  : 

🪐ज्योतिष- ग्रह- नक्षत्र 🪐 

सूर्य देव :  

 रविवार विशेष - सूर्य देव 


समस्त ब्रह्मांड को प्रकाशित करने वाले भगवान भास्कर न सिर्फ सम्पूर्ण संसार के कर्ताधर्ता है बल्कि नवग्रहों के अधिपति भी माने जाते हैं। 




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सूर्य देव एक ऐसे देव हैं जिनके दर्शन के बिना किसी के भी दिन का आरंभ नहीं होता है। 

रविवार का दिन सूर्य देव को समर्पित है। 

भगवान सूर्य का दिन होने के कारण रविवार को भगवान सूर्य का उपासना बेहद ही पुण्यकारक माना जाता है। 


सूर्यदेव को हिरण्यगर्भ भी कहा जाता है। 

हिरण्यगर्भ यानी जिसके गर्भ में ही सुनहरे रंग की आभा है। 

इनकी कृपा दृष्टि प्राप्त करने के लिए रविवार के दिन सूर्य भगवान का विधिवत पूजा पाठ करके जल चढ़ाना चाहिए।

ऐसा करने से भगवान सूर्य की कृपा हमारे परिवार पर बनी रहती है। 


🔆सूर्य- पिता, स्वास्थ्य, यश सम्मान, प्रशासनिक नौकरियां व व्यापार के कारक ग्रह है। 

कुंडली में इनके शुभ होने से इन सभी क्षेत्रों में सफलता प्राप्त होती है।


🔆उदयगामी सूर्य को प्रणाम करना प्रगति की निशानी है। 

इसी लिए सुबह- सुबह स्नान करके उगते सूर्य को देखना चाहिए, उन्हें प्रणाम करना चाहिए। 

इससे शरीर में सकारात्मक ऊर्जा का संचार होता है। 


🔆सूर्यदेव की पूजा के लिए सूर्योदय से पूर्व उठकर स्नान करें। 

इसके पश्चात् उगते हुए सूर्य का दर्शन करते हुए उन्हें "ॐ घृणि सूर्याय नम:" या फिर "ॐ सूर्याय नमः" कहते हुए जल अर्पित करें। 


🔆सूर्य को दिए जाने वाले जल में केवल लाल, पीले पुष्प मिला सकते हैं, लेकिन इसके अलावा और किसी प्रकार की सामग्री जल में नहीं मिलानी चाहिए क्योंकि इससे जल की पवित्रता भंग होती है।


🔆अर्घ्य समर्पित करते समय नजरें लोटे के जल की धारा की ओर रखें। 

जल की धारा में सूर्य का प्रतिबिम्ब एक बिन्दु के रूप में जल की धारा में दिखाई देगा।


🔆सूर्य को अर्घ्य समर्पित करते समय दोनों भुजाओं को इतना ऊपर उठाएं कि जल की धारा में सूर्य का प्रतिबिंब दिखाई दे। 


🔆सूर्य देव की सात प्रदक्षिणा करें व हाथ जोड़कर प्रणाम करते हुए सूर्यनारायण के समक्ष आप इन मंत्रों का जाप भी कर सकते है-:


1- ॐ सूर्याय नम:।


2- ॐ मित्राय नम:।


3- ॐ रवये नम:।


4- ॐ भानवे नम:।


5- ॐ खगाय नम:।


6- ॐ पूष्णे नम:।


7- ॐ हिरण्यगर्भाय नम:।


8- ॐ मारीचाय नम:।


9- ॐ आदित्याय नम:।


10- ॐ सावित्रे नम:।


11- ॐ अर्काय नम:।


12- ॐ भास्कराय नम:।।


शनि की साढ़े साती  :


शनि की साढ़े साती के कुछ लक्षण दुर्गति परिणाम जाने अपने जन्म कुंडली से....!

 

बहुत सारी घटनाएं हमारे और आपके जीवन में हो रही है जो कि वर्तमान में शनि की अधिक प्रभाव और साडेसाती अधिया की असर के कारण हो रहा है जाने खास लक्षण 


हथेली की रेखाओं का रंग बदल जाना या नीला या काला हो जाना सिर की चमक गायब हो जाना और माथे पर काला रंग दिखना 

 

बात-बात पर गुस्सा आना वाणी और विचारों में बदलाव होना अचानक टेंशन बढ़ना और हमेशा सिर में दर्द रहना 

 

हर काम में असफलता मिलना 

शरीर में कुछ न कुछ कष्ट होना 

 

अपनों से धोखा मिलना मन मस्तिष्क बिना कारण के गर्म होना घर में पैसा टिकना न होना 

 

शनि की साढ़े साती तीन हिस्सों में होती है और हर हिस्सा लगभग ढाई साल का होता है. शनि साढ़े साती के दौरान, शनि व्यक्ति को जीवन भर के लिए सिख देने का प्रयास करता है. 


शनि साढ़े साती के दौरान शनिदेव की पूजा करने से शनि के दोषों से मुक्ति मिलती है. 


वर्तमान 2025 में मकर राशि कुंभ राशि पर शनि की साडेसाती अधिया का विशेष प्रभाव है जो की आने वाले समय में कर्ज जेल या अन्य धन का नुकसान तथा गुप्त शत्रुओं से 


अधिक पीड़ा तथा कार्य क्षेत्र व्यवसाय आदि में अधिक नुकसान होगा और वर्तमान में हो रहा है या मनोरोग या मानसिक रोग हो सकते हैं 


आप यथाशीघ्र शनि की साडेसाती अढैया की शांति निवारण करें और लाभ में...!


और अधिक जानकारी रत्न से जुड़ा हुआ परामर्श सलाह या आपको किसी भी तरह के रत्न चाहिए या जन्म कुंडली दिखाना है 


या कुंडली बनवाना है या किसी भी प्रकार की रत्न से जुड़ा हुआ विशेष जानकारी या रत्न चाहिए तो कॉल करें ....!





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यच्च किञ्चित् जगत्सर्वं,दृश्यते श्रूयतेऽपि वा।

अन्तर्बहिश्च तत्सर्वं,व्याप्य नारायण:स्थित:।।


निष्कलाय विमोहाय,शुद्धायाशुद्धवैरिणे।

अद्वितीयाय महते,श्रीकृष्णाय नमो नमः।।


जो कुछ हो चुका है, जो कुछ हो रहा है और होने वाला है...! 

वह दिखाई देने वाला और सुनने में आने वाला सम्पूर्ण जगत भगवान् नारायण ही हैं। 

इसमें भीतर और बाहर सब ओर से भगवान् नारायण ही व्याप्त हुए स्थित हैं।

'जो कला ( अवयव) से रहित हैं...! 

जिनमें मोह का सर्वथा अभाव है, जो स्वरूप से ही परम विशुद्ध हैं...! 

अशुद्ध ( स्वभाव तथा आचरण वाले) असुरों के शत्रु हैं तथा जिनसे बढ़कर या जिनके समान भी दूसरा कोई नहीं है...! 

उन सर्वमहान् परमात्मा श्रीकृष्ण को बारम्बार नमस्कार है।'

       

     || विष्णु भगवान की जय हो ||


संपर्क सूत्र - 7598240825 - 9427236337 ,

पंडारामा प्रभु राज्यगुरु ,

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Monday, June 23, 2025

शनि प्रदोष व्रत परिचय एवं विस्तृत विधि :

शनि प्रदोष व्रत परिचय एवं विस्तृत विधि :


शनि प्रदोष व्रत परिचय एवं विस्तृत विधि :


प्रत्येक चन्द्र मास की त्रयोदशी तिथि के दिन प्रदोष व्रत रखने का विधान है. यह व्रत कृष्ण पक्ष और शुक्ल पक्ष दोनों को किया जाता है. 

सूर्यास्त के बाद के 2 घण्टे 24 मिनट का समय प्रदोष काल के नाम से जाना जाता है. 

प्रदेशों के अनुसार यह बदलता रहता है. सामान्यत: सूर्यास्त से लेकर रात्रि आरम्भ तक के मध्य की अवधि को प्रदोष काल में लिया जा सकता है।





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ऐसा माना जाता है कि प्रदोष काल में भगवान भोलेनाथ कैलाश पर्वत पर प्रसन्न मुद्रा में नृ्त्य करते है. 

जिन जनों को भगवान श्री भोलेनाथ पर अटूट श्रद्धा विश्वास हो, 

उन जनों को त्रयोदशी तिथि में पडने वाले प्रदोष व्रत का नियम पूर्वक पालन कर उपवास करना चाहिए।


यह व्रत उपवासक को धर्म, मोक्ष से जोडने वाला और अर्थ, काम के बंधनों से मुक्त करने वाला होता है. 

इस व्रत में भगवान शिव की पूजन किया जाता है. 

भगवान शिव कि जो आराधना करने वाले व्यक्तियों की गरीबी, मृ्त्यु, दु:ख और ऋणों से मुक्ति मिलती है।


प्रदोष व्रत की महत्ता


शास्त्रों के अनुसार प्रदोष व्रत को रखने से दौ गायों को दान देने के समान पुन्य फल प्राप्त होता है. प्रदोष व्रत को लेकर एक पौराणिक तथ्य सामने आता है कि " एक दिन जब चारों और अधर्म की स्थिति होगी, 

अन्याय और अनाचार का एकाधिकार होगा, मनुष्य में स्वार्थ भाव अधिक होगी. तथा व्यक्ति सत्कर्म करने के स्थान पर नीच कार्यो को अधिक करेगा।


उस समय में जो व्यक्ति त्रयोदशी का व्रत रख, शिव आराधना करेगा, उस पर शिव कृ्पा होगी. 

इस व्रत को रखने वाला व्यक्ति जन्म - जन्मान्तर के फेरों से निकल कर मोक्ष मार्ग पर आगे बढता है. 

उसे उतम लोक की प्राप्ति होती है।


व्रत से मिलने वाले फल


अलग - अलग वारों के अनुसार प्रदोष व्रत के लाभ प्राप्त होते है।


जैसे सोमवार के दिन त्रयोदशी पडने पर किया जाने वाला वर्त आरोग्य प्रदान करता है। 

सोमवार के दिन जब त्रयोदशी आने पर जब प्रदोष व्रत किया जाने पर, उपवास से संबन्धित मनोइच्छा की पूर्ति होती है। 

जिस मास में मंगलवार के दिन त्रयोदशी का प्रदोष व्रत हो, उस दिन के व्रत को करने से रोगों से मुक्ति व स्वास्थय लाभ प्राप्त होता है एवं बुधवार के दिन प्रदोष व्रत हो तो, उपवासक की सभी कामना की पूर्ति होने की संभावना बनती है।


गुरु प्रदोष व्रत शत्रुओं के विनाश के लिये किया जाता है। 

शुक्रवार के दिन होने वाल प्रदोष व्रत सौभाग्य और दाम्पत्य जीवन की सुख - शान्ति के लिये किया जाता है। 

अंत में जिन जनों को संतान प्राप्ति की कामना हो, उन्हें शनिवार के दिन पडने वाला प्रदोष व्रत करना चाहिए। 

अपने उद्देश्यों को ध्यान में रखते हुए जब प्रदोष व्रत किये जाते है, तो व्रत से मिलने वाले फलों में वृ्द्धि होती है।


व्रत विधि :


सुबह स्नान के बाद भगवान शिव, पार्वती और नंदी को पंचामृत और जल से स्नान कराएं। 

फिर गंगाजल से स्नान कराकर बेल पत्र, गंध, अक्षत ( चावल ), फूल, धूप, दीप, नैवेद्य ( भोग ), फल, पान, सुपारी, लौंग और इलायची चढ़ाएं। 

फिर शाम के समय भी स्नान करके इसी प्रकार से भगवान शिव की पूजा करें। 

फिर सभी चीजों को एक बार शिव को चढ़ाएं।

और इसके बाद भगवान शिव की सोलह सामग्री से पूजन करें। 

बाद में भगवान शिव को घी और शक्कर मिले जौ के सत्तू का भोग लगाएं। 

इस के बाद आठ दीपक आठ दिशाओं में जलाएं। 

जितनी बार आप जिस भी दिशा में दीपक रखेंगे, दीपक रखते समय प्रणाम जरूर करें। 

अंत में शिव की आरती करें और साथ ही शिव स्त्रोत, मंत्र जाप करें। रात में जागरण करें।


प्रदोष व्रत समापन पर उद्धापन :


इस व्रत को ग्यारह या फिर 26 त्रयोदशियों तक रखने के बाद व्रत का समापन करना चाहिए. इसे उद्धापन के नाम से भी जाना जाता है।


उद्धापन करने की विधि :


इस व्रत को ग्यारह या फिर 26 त्रयोदशियों तक रखने के बाद व्रत का समापन करना चाहिए. इसे उद्धापन के नाम से भी जाना जाता है।


इस व्रत का उद्धापन करने के लिये त्रयोदशी तिथि का चयन किया जाता है. उद्धापन से एक दिन पूर्व श्री गणेश का पूजन किया जाता है. 

पूर्व रात्रि में कीर्तन करते हुए जागरण किया जाता है. प्रात: जल्द उठकर मंडप बनाकर, मंडप को वस्त्रों या पद्म पुष्पों से सजाकर तैयार किया जाता है. 

"ऊँ उमा सहित शिवाय नम:" मंत्र का एक माला अर्थात 108 बार जाप करते हुए, हवन किया जाता है. 

हवन में आहूति के लिये खीर का प्रयोग किया जाता है।


हवन समाप्त होने के बाद भगवान भोलेनाथ की आरती की जाती है। 

और शान्ति पाठ किया जाता है. अंत: में दो ब्रह्माणों को भोजन कराया जाता है. तथा अपने सामर्थ्य अनुसार दान दक्षिणा देकर आशिर्वाद प्राप्त किया जाता है।


शनि प्रदोष व्रत कथा


सूत जी बोले – 

“पुत्र कामना हेतु यदि, हो विचार शुभ शुद्ध । 

शनि प्रदोष व्रत परायण, करे सुभक्त विशुद्ध ॥”


व्रत कथा


प्राचीन समय की बात है । 

एक नगर सेठ धन - दौलत और वैभव से सम्पन्न था । 

वह अत्यन्त दयालु था । 

उसके यहां से कभी कोई भी खाली हाथ नहीं लौटता था । 

वह सभी को जी भरकर दान - दक्षिणा देता था । 

लेकिन दूसरों को सुखी देखने वाले सेठ और उसकी पत्‍नी स्वयं काफी दुखी थे । 

दुःख का कारण था- उनके सन्तान का न होना । 

सन्तानहीनता के कारण दोनों घुले जा रहे थे । 

एक दिन उन्होंने तीर्थयात्र पर जाने का निश्‍चय किया और अपने काम - काज सेवकों को सोंप चल पडे । 

अभी वे नगर के बाहर ही निकले थे कि उन्हें एक विशाल वृक्ष के नीचे समाधि लगाए एक तेजस्वी साधु दिखाई पड़े । 

दोनों ने सोचा कि साधु महाराज से आशीर्वाद लेकर आगे की यात्रा शुरू की जाए । 

पति - पत्‍नी दोनों समाधिलीन साधु के सामने हाथ जोड़कर बैठ गए और उनकी समाधि टूटने की प्रतीक्षा करने लगे । 

सुबह से शाम और फिर रात हो गई, लेकिन साधु की समाधि नही टूटी । 

मगर सेठ पति - पत्‍नी धैर्यपूर्वक हाथ जोड़े पूर्ववत बैठे रहे । 

अंततः अगले दिन प्रातः काल साधु समाधि से उठे । 

सेठ पति - पत्‍नी को देख वह मन्द - मन्द मुस्कराए और आशीर्वाद स्वरूप हाथ उठाकर बोले- ‘मैं तुम्हारे अन्तर्मन की कथा भांप गया हूं वत्स! मैं तुम्हारे धैर्य और भक्तिभाव से अत्यन्त प्रसन्न हूं।’ 

साधु ने सन्तान प्राप्ति के लिए उन्हें शनि प्रदोष व्रत करने की विधि समझाई और शंकर भगवान की निम्न वन्दना बताई।


हे रुद्रदेव शिव नमस्कार । 

शिव शंकर जगगुरु नमस्कार ॥

हे नीलकंठ सुर नमस्कार । 

शशि मौलि चन्द्र सुख नमस्कार ॥

हे उमाकान्त सुधि नमस्कार । 

उग्रत्व रूप मन नमस्कार ॥

ईशान ईश प्रभु नमस्कार । 

विश्‍वेश्वर प्रभु शिव नमस्कार ॥


तीर्थयात्रा के बाद दोनों वापस घर लौटे और नियमपूर्वक शनि प्रदोष व्रत करने लगे । 

कालान्तर में सेठ की पत्‍नी ने एक सुन्दर पुत्र जो जन्म दिया । 

शनि प्रदोष व्रत के प्रभाव से उनके यहां छाया अन्धकार लुप्त हो गया । 

दोनों आनन्दपूर्वक रहने लगे।” 


प्रदोषस्तोत्रम् :


।। श्री गणेशाय नमः।। 


जय देव जगन्नाथ जय शङ्कर शाश्वत । 

जय सर्वसुराध्यक्ष जय सर्वसुरार्चित ॥ १॥ 


जय सर्वगुणातीत जय सर्ववरप्रद । 

जय नित्य निराधार जय विश्वम्भराव्यय ॥ २॥ 


जय विश्वैकवन्द्येश जय नागेन्द्रभूषण । 

जय गौरीपते शम्भो जय चन्द्रार्धशेखर ॥ ३॥ 


जय कोट्यर्कसङ्काश जयानन्तगुणाश्रय । 

जय भद्र विरूपाक्ष जयाचिन्त्य निरञ्जन ॥ ४॥ 


जय नाथ कृपासिन्धो जय भक्तार्तिभञ्जन । 

जय दुस्तरसंसारसागरोत्तारण प्रभो ॥ ५॥ 


प्रसीद मे महादेव संसारार्तस्य खिद्यतः । 

सर्वपापक्षयं कृत्वा रक्ष मां परमेश्वर ॥ ६॥ 


महादारिद्र्यमग्नस्य महापापहतस्य च । 

महाशोकनिविष्टस्य महारोगातुरस्य च ॥ ७॥ 


ऋणभारपरीतस्य दह्यमानस्य कर्मभिः । 

ग्रहैः प्रपीड्यमानस्य प्रसीद मम शङ्कर ॥ ८॥ 


दरिद्रः प्रार्थयेद्देवं प्रदोषे गिरिजापतिम् । 

अर्थाढ्यो वाऽथ राजा वा प्रार्थयेद्देवमीश्वरम् ॥ ९॥ 


दीर्घमायुः सदारोग्यं कोशवृद्धिर्बलोन्नतिः । 

ममास्तु नित्यमानन्दः प्रसादात्तव शङ्कर ॥ १०॥ 


शत्रवः संक्षयं यान्तु प्रसीदन्तु मम प्रजाः । 

नश्यन्तु दस्यवो राष्ट्रे जनाः सन्तु निरापदः ॥ ११॥ 


दुर्भिक्षमरिसन्तापाः शमं यान्तु महीतले । 

सर्वसस्यसमृद्धिश्च भूयात्सुखमया दिशः ॥ १२॥ 


एवमाराधयेद्देवं पूजान्ते गिरिजापतिम् । 

ब्राह्मणान्भोजयेत् पश्चाद्दक्षिणाभिश्च पूजयेत् ॥ १३॥ 


सर्वपापक्षयकरी सर्वरोगनिवारणी । 

शिवपूजा मयाऽऽख्याता सर्वाभीष्टफलप्रदा ॥ १४॥ 


॥ इति प्रदोषस्तोत्रं सम्पूर्णम् ॥


कथा एवं स्तोत्र पाठ के बाद महादेव जी की आरती करें :


ताम्बूल, दक्षिणा, जल -आरती 


तांबुल का मतलब पान है। 

यह महत्वपूर्ण पूजन सामग्री है। 

फल के बाद तांबुल समर्पित किया जाता है। 

ताम्बूल के साथ में पुंगी फल ( सुपारी ), लौंग और इलायची भी डाली जाती है । 

दक्षिणा अर्थात् द्रव्य समर्पित किया जाता है। 

भगवान भाव के भूखे हैं। 

अत: उन्हें द्रव्य से कोई लेना - देना नहीं है। 

द्रव्य के रूप में रुपए, स्वर्ण, चांदी कुछ भी अर्पित किया जा सकता है।


आरती पूजा के अंत में धूप, दीप, कपूर से की जाती है। 

इसके बिना पूजा अधूरी मानी जाती है। 

आरती में एक, तीन, पांच, सात यानि विषम बत्तियों वाला दीपक प्रयोग किया जाता है।


भगवान शिव जी की आरती :


ॐ जय शिव ओंकारा,भोले हर शिव ओंकारा।

ब्रह्मा विष्णु सदा शिव अर्द्धांगी धारा ॥ ॐ हर हर हर महादेव...॥


एकानन चतुरानन पंचानन राजे।

हंसानन गरुड़ासन वृषवाहन साजे ॥ ॐ हर हर हर महादेव..॥


दो भुज चार चतुर्भुज दस भुज अति सोहे।

तीनों रूपनिरखता त्रिभुवन जन मोहे ॥ ॐ हर हर हर महादेव..॥


अक्षमाला बनमाला मुण्डमाला धारी।

चंदन मृगमद सोहै भोले शशिधारी ॥ ॐ हर हर हर महादेव..॥


श्वेताम्बर पीताम्बर बाघम्बर अंगे।

सनकादिक गरुणादिक भूतादिक संगे ॥ ॐ हर हर हर महादेव..॥


कर के मध्य कमंडलु चक्र त्रिशूल धर्ता।

जगकर्ता जगभर्ता जगपालन करता ॥ ॐ हर हर हर महादेव..॥


ब्रह्मा विष्णु सदाशिव जानत अविवेका।

प्रणवाक्षर के मध्ये ये तीनों एका ॥ ॐ हर हर हर महादेव..॥


काशी में विश्वनाथ विराजत नन्दी ब्रह्मचारी।

नित उठि दर्शन पावत रुचि रुचि भोग लगावत महिमा अति भारी ॥ ॐ हर हर हर महादेव..॥


लक्ष्मी व सावित्री, पार्वती संगा ।

पार्वती अर्धांगनी, शिवलहरी गंगा ।। ॐ हर हर हर महादेव..।।


पर्वत सौहे पार्वती, शंकर कैलासा।

भांग धतूर का भोजन, भस्मी में वासा ।। ॐ हर हर हर महादेव..।।


जटा में गंगा बहत है, गल मुंडल माला।

शेष नाग लिपटावत, ओढ़त मृगछाला ।। ॐ हर हर हर महादेव..।।


त्रिगुण शिवजीकी आरती जो कोई नर गावे।

कहत शिवानन्द स्वामी मनवांछित फल पावे ॥ ॐ हर हर हर महादेव..॥


ॐ जय शिव ओंकारा भोले हर शिव ओंकारा

ब्रह्मा विष्णु सदाशिव अर्द्धांगी धारा ।। ॐ हर हर हर महादेव।।


कर्पूर आरती :


कर्पूरगौरं करुणावतारं, संसारसारम् भुजगेन्द्रहारम्।

सदावसन्तं हृदयारविन्दे, भवं भवानीसहितं नमामि॥


मंगलम भगवान शंभू

मंगलम रिषीबध्वजा ।

मंगलम पार्वती नाथो

मंगलाय तनो हर ।।


मंत्र पुष्पांजलि :


मंत्र पुष्पांजली मंत्रों द्वारा हाथों में फूल लेकर भगवान को पुष्प समर्पित किए जाते हैं तथा प्रार्थना की जाती है। 

भाव यह है कि इन पुष्पों की सुगंध की तरह हमारा यश सब दूर फैले तथा हम प्रसन्नता पूर्वक जीवन बीताएं।


ॐ यज्ञेन यज्ञमयजंत देवास्तानि धर्माणि प्रथमान्यासन्।


ते हं नाकं महिमान: सचंत यत्र पूर्वे साध्या: संति देवा:


ॐ राजाधिराजाय प्रसह्ये साहिने नमो वयं वैश्रवणाय कुर्महे स मे कामान्कामकामाय मह्यम् कामेश्वरो वैश्रवणो ददातु।

कुबेराय वैश्रवणाय महाराजाय नम:


ॐ स्वस्ति साम्राज्यं भौज्यं स्वाराज्यं वैराज्यं


पारमेष्ठ्यं राज्यं माहाराज्यमाधिपत्यमयं समंतपर्यायी सार्वायुष आंतादापरार्धात्पृथिव्यै समुद्रपर्यंता या एकराळिति तदप्येष श्लोकोऽभिगीतो मरुत: परिवेष्टारो मरुत्तस्यावसन्गृहे आविक्षितस्य कामप्रेर्विश्वेदेवा: सभासद इति।


ॐ विश्व दकचक्षुरुत विश्वतो मुखो विश्वतोबाहुरुत विश्वतस्पात संबाहू ध्यानधव धिसम्भत त्रैत्याव भूमी जनयंदेव एकः।

ॐ तत्पुरुषाय विद्महे महादेवाय धीमहि

तन्नो रुद्रः प्रचोदयात्॥


नाना सुगंध पुष्पांनी यथापादो भवानीच

पुष्पांजलीर्मयादत्तो रुहाण परमेश्वर

ॐ भूर्भुव: स्व: भगवते श्री सांबसदाशिवाय नमः। मंत्र पुष्पांजली समर्पयामि।।


प्रदक्षिणा


नमस्कार, स्तुति -प्रदक्षिणा का अर्थ है परिक्रमा। 

आरती के उपरांत भगवन की परिक्रमा की जाती है, परिक्रमा हमेशा क्लॉक वाइज ( clock - wise ) करनी चाहिए। 

स्तुति में क्षमा प्रार्थना करते हैं, क्षमा मांगने का आशय है कि हमसे कुछ भूल, गलती हो गई हो तो आप हमारे अपराध को क्षमा करें।



 

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यानि कानि च पापानि जन्मांतर कृतानि च। 

तानि सवार्णि नश्यन्तु प्रदक्षिणे पदे - पदे।।


अर्थ: जाने अनजाने में किए गए और पूर्वजन्मों के भी सारे पाप प्रदक्षिणा के साथ - साथ नष्ट हो जाए।

पंडारामा प्रभु राज्यगुरु


Sunday, May 25, 2025

भारतीय वैदिक ज्योतिष मे रोहिणी नक्षत्र के जातक/कैसे शुरू हुए कृष्ण और शुक्ल पक्ष/भारतीय वैदिक ज्योतिष मे कृतिका नक्षत्र के जातक

भारतीय वैदिक ज्योतिष मे रोहिणी नक्षत्र के जातक  , कैसे शुरू हुए कृष्ण और शुक्ल पक्ष , भारतीय वैदिक ज्योतिष मे कृतिका नक्षत्र के जातक :


भारतीय वैदिक ज्योतिष मे रोहिणी नक्षत्र के जातक :


राशिफल में रोहिणी नक्षत्र 40.00 अंशों से 53.20 अंशों के मध्य स्थित हैं। रोहिणी के पर्यायवाची नाम हैं-विधि, विरंचि, शंकर अरबी में इसे अल्दे वारान कहते हैं।


रोहिणी नक्षत्र के साथ अनेक पौराणिक कथाएं जुड़ी हुई हैं। कहीं उसे कृष्ण के अग्रज बलराम की मां कहा गया है तो कहीं लाल रंग की गाय । 


उसे कश्यप ऋषि की पुत्री, चंद्रमा की पत्नी भी माना गया है।




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रोहिणी की आकृति स्थ की भांति आंकी गयी है। 

उसमें कितने तारे हैं, इस विषय में मतभेद हैं। 

सामान्यतः रोहिणी नक्षत्र में पांच तारों की स्थिति मानी गयी है। 

दक्षिण भारत के ज्योतिषी रोहिणी में बियालिस तारों की उपस्थिति मानते हैं। 

उनके लिए रोहिणी वट वृक्ष स्वरूप का है।


यह नक्षत्र वृष राशि ( स्वामी शुक्र ) के अंतर्गत आता है। 

रोहिणी के देवता ब्रह्मा हैं और अधिपति ग्रह-चंद्र।


गण: मनुष्य योनिः सर्प व नाड़ी: अंत्या चरणाक्षर हैं- 

ओ, वा, वी, वू रोहिणी नक्षत्र में जातक सामान्यतः छरहरे, आकर्षक नेत्र एवं चुम्बकीय व्यक्तित्व वाले होते हैं। 

वे भावुक हृदय होते हैं और अक्सर भावावेग में ही निर्णय करते हैं। 

उन्हें तुनुकमिजाज भी कहा जा सकता है और उनका हठ लोगों को परेशान कर देता है। 

उनमें आत्म लुब्धता की भावना भी होती हैं। 

वे औरों पर तत्काल भरोसा कर लेते हैं और धोखा भी खाते हैं। 

लेकिन यह सब उनकी सत्यनिष्ठता में कोई कमी नहीं लाता।


ऐसे जातक वर्तमान में ही जीते हैं, कल की चिंता से सर्वथा मुक्त उनका जीवन उतार-चढ़ाव से भरा रहता है। 

वे हर कार्य निष्ठा से संपन्न करना चाहते हैं, पर अधैर्य उन्हें कोई भी कार्य पूरा नहीं करने देता। 

उनकी ऊर्जा बंट सी जाती है। 

वे एक को साधने की बजाय सबको साधने की कोशिश करते हैं, लेकिन ऐसे जातकों को यह उक्ति याद रखनी चाहिए कि एक ही साधे सब सधे, सब साधे सब जाय! यदि वे अधैर्य त्याग कर संयमित होकर कार्य करें तो जीवन में यशस्वी भी हो सकते हैं।


युवावस्था उनके लिए सतत् संघर्ष लेकर आती है। 

आर्थिक समस्याओं के अतिरिक्त स्वास्थ्य की गड़बड़ी भी उन्हें परेशान किये रहती है। 

अड़तीस वर्ष की अवस्था के बाद ही जीवन में स्थिरता आती है।


ऐसे जातक माता के प्रति विशेष आसक्त होते हैं। 

मातृपक्ष से ही उन्हें लाभ भी होता है। 

पिता की ओर से उन्हें कोई विशेष लाभ नहीं होता ।


ऐसे जातकों में यह भी देखा गया है कि जरूरत पड़ने पर वे तमाम रीति - रिवाजों और मान्यताओं को तिलांजलि भी देते हैं। 

ऐसे जातकों का वैवाहिक जीवन भी विशेष सुखद नहीं बताया गया है।


रोहिणी नक्षत्र में जन्मे जातक रक्त संबंधी विकारों के शिकार हो सकते हैं- 

यथा रक्त का मधुमेह आदि । 

रोहिणी नक्षत्र में जन्मी जातिकाएं भी सुंदर एवं आकर्षक व्यक्तित्व वाली होती हैं। 

वे सद्-व्यवहार वाली होती हैं तथापि प्रदर्शन- प्रिय भी, रोहिणी नक्षत्र में जन्मे जातकों की तरह वे भी तुनुकमिजाजी के कारण दुःख उठाती हैं। 

वे व्यवहारिक होती हैं, अतः वे थोड़े से प्रयत्न से अपनी इस आदत पर काबू पा सकती हैं। 

ऐसी जातिकाएं प्रत्येक कार्य को भली भांति करने में सक्षम होती हैं। 

फलतः उनका पारिवारिक जीवन भी सुखी होता है। 

लेकिन पूर्ण वैवाहिक एवं पारिवारिक सुख प्राप्त करने के लिए उन्हें अपने ही स्वभाव पर अंकुश लगाने की सलाह दी जाती है। 

ऐसी जातिकाओं का स्वास्थ्य प्रायः ठीक ही रहता है।


रोहिणी नक्षत्र के प्रथम चरण का स्वामी मंगल, द्वितीय चरण का शुक्र, तृतीय चरण का बुध एवं चतुर्थ चरण का स्वयं चंद्र होता है।


क्रमशः... आगे के लेख मे मृगशिरा नक्षत्र के विषय मे विस्तार से वर्णन किया जाएगा।


कैसे शुरू हुए कृष्ण और शुक्ल पक्ष :


पंचांग के अनुसार हर माह में तीस दिन होते हैं और इन महीनों की गणना सूरज और चंद्रमा की गति के अनुसार की जाती है। 

चन्द्रमा की कलाओं के ज्यादा या कम होने के अनुसार ही महीने को दो पक्षों में बांटा गया है जिन्हे कृष्ण पक्ष या शुक्ल पक्ष कहा जाता है।

पूर्णिमा से अमावस्या तक बीच के दिनों को कृष्णपक्ष कहा जाता है, वहीं इसके उलट अमावस्या से पूर्णिमा तक का समय शुक्लपक्ष कहलाता है। 

दोनों पक्ष कैसे शुरू हुए उनसे जुड़ी पौराणिक कथाएं भी हैं।


कृष्ण और शुक्ल पक्ष से जुड़ी कथा :


इस तरह हुई कृष्णपक्ष की शुरुआत :


पौराणिक ग्रंथों के अनुसार दक्ष प्रजापति ने अपनी सत्ताईस बेटियों का विवाह चंद्रमा से कर दिया। 

ये सत्ताईस बेटियां सत्ताईस स्त्री नक्षत्र हैं और अभिजीत नामक एक पुरुष नक्षत्र भी है। 

लेकिन चंद्र केवल रोहिणी से प्यार करते थे। 

ऐसे में बाकी स्त्री नक्षत्रों ने अपने पिता से शिकायत की कि चंद्र उनके साथ पति का कर्तव्य नहीं निभाते। 

दक्ष प्रजापति के डांटने के बाद भी चंद्र ने रोहिणी का साथ नहीं छोड़ा और बाकी पत्नियों की अवहेलना करते गए। तब चंद्र पर क्रोधित होकर दक्ष प्रजापति ने उन्हें क्षय रोग का शाप दिया। 

क्षय रोग के कारण सोम या चंद्रमा का तेज धीरे-धीरे कम होता गया। 

कृष्ण पक्ष की शुरुआत यहीं से हुई। 


ऐसे शुरू हुआ शुक्लपक्ष :


कहते हैं कि क्षय रोग से चंद्र का अंत निकट आता गया। 

वे ब्रह्मा के पास गए और उनसे मदद मांगी। तब ब्रह्मा और इंद्र ने चंद्र से शिवजी की आराधना करने को कहा। 

शिवजी की आराधना करने के बाद शिवजी ने चंद्र को अपनी जटा में जगह दी। 

ऐसा करने से चंद्र का तेज फिर से लौटने लगा। 

इससे शुक्ल पक्ष का निर्माण हुआ। 

चूंकि दक्ष ‘प्रजापति’ थे। 

चंद्र उनके शाप से पूरी तरह से मुक्त नहीं हो सकते थे। 

शाप में केवल बदलाव आ सकता था। 

इस लिए चंद्र को बारी-बारी से कृष्ण पक्ष और शुक्ल पक्ष में जाना पड़ता है। 

दक्ष ने कृष्ण पक्ष का निर्माण किया और शिवजी ने शुक्ल पक्ष का।


कृष्ण पक्ष और शुक्ल पक्ष के बीच अंतर :


जब हम संस्कृत शब्दों शुक्ल और कृष्ण का अर्थ समझते हैं, तो हम स्पष्ट रूप से दो पक्षों के बीच अंतर कर सकते हैं। 

शुक्ल उज्ज्वल व्यक्त करते हैं, जबकि कृष्ण का अर्थ है अंधेरा।


जैसा कि हमने पहले ही देखा, शुक्ल पक्ष अमावस्या से पूर्णिमा तक है, और कृष्ण पक्ष, शुक्ल पक्ष के विपरीत, पूर्णिमा से अमावस्या तक शुरू होता है।


कौन सा पक्ष शुभ है ?


धार्मिक मान्यता के अनुसार, लोग शुक्ल पक्ष को आशाजनक और कृष्ण पक्ष को प्रतिकूल मानते हैं। 

यह विचार चंद्रमा की जीवन शक्ति और रोशनी के संबंध में है।


भारतीय वैदिक ज्योतिष शास्त्र के अनुसार शुक्ल पक्ष की दशमी से लेकर कृष्ण पक्ष की पंचम तिथि तक की अवधि ज्योतिषीय दृष्टि से शुभ मानी जाती है। 

इस समय के दौरान चंद्रमा की ऊर्जा अधिकतम या लगभग अधिकतम होती है - जिसे ज्योतिष में शुभ और अशुभ समय तय करने के लिए महत्वपूर्ण माना जाता है।


भारतीय वैदिक ज्योतिष मे कृतिका नक्षत्र के जातक :


कृत्तिका नक्षत्र राशि फल में 26.40 से 40.00 अंशों के मध्य स्थित है। 

कृत्तिका के पर्यायवाची नाम हैं- हुताशन, अग्नि, बहुला अरबी में इसे अथ थुरेया' कहते हैं। 

इस नक्षत्र में छह तारों की स्थिति मानी गयी है। देवता अग्नि एवं स्वामी गुरु सूर्य है। 

कृत्तिका प्रथम चरण मेष राशि ( स्वामी : मंगल ) एवं शेष तीन चरण वृष राशि ( स्वामी: शुक्र ) में आते हैं।


गणः राक्षस, योनिः मेष एवं नाड़ी: अंत है। 

चरणाक्षर हैं: अ, इ, उ, ए ।


कृत्तिका नक्षत्र में जन्मे जातक मध्यम कद, चौड़े कंधे तथा सुगठित मांसपेशियों वाले होते हैं। 

ऐसे जातक अत्यंत बुद्धिमान, अच्छे सलाहकार, आशावादी कठिन परिश्रमी तथा एक तरह हठी भी होते हैं। 

वे वचन के पक्के तथा समाज की सेवा भी करना चाहते हैं। 

वे येन-केन-प्रकारेण अर्थ, यश नहीं प्राप्त करना चाहते, न तो अवैध मागों का अवलंबन करते हैं, न किसी की दया' पर आश्रित रहना चाहते हैं। 

उनमें अहं कुछ अधिक होता हैं, फलतः वे अपने किसी भी कार्य में कोई त्रुटि नहीं देख पाते। 

वे परिस्थितियों के अनुसार ढलना नहीं जानते। 

तथापि ऐसे जातक का • सार्वजनिक जीवन यशस्वी होता है। 

लेकिन अत्यधिक ईमानदारी भरा व्यवहार उनके पतन का कारण बन जाता है।


ऐसे जातकों को सत्तापक्ष से लाभ मिलता है। 

वे चिकित्सा या इंजीनियरिंग के अलावा ट्रेजरी विभाग में भी सफल हो सकते हैं, विशेषकर सूत निर्यात, औषध या अलंकरण वस्तुओं के व्यापार में सामान्यतः जन्मभूमि से दूर ही उनका उत्कर्ष होता है।


ऐसे जातकों का वैवाहिक जीवन सुखी बीतता है। 

पत्नी गुणवती, गृह कार्य में दक्ष तथा सुशील होती है। 

प्रायः उनकी पत्नी उनके परिवार की पूर्व परिचित ही होती है। 

प्रेम विवाह के भी सकेत मिलते हैं।


ऐसे जातकों का स्वास्थ्य भी सामान्यतः ठीक ही रहता है तथापि उन्हें दंत-पीडा, नेत्र-विकार, क्षय, बवासीर आदि रोग जल्दी ही पकड़ सकते हैं।


कृतिका नक्षत्र में जन्मी जातिकाएं मध्यम कद की बहुत रूपवती तथा साफ-सफाई पसंद होती हैं। 

वे अनावश्यक रूप से किसी से दबना' पसंद नहीं करतीं, फलतः जाने-अनजाने उनका स्वभाव कलह पैदा करने वाला बन जाता है। 

उनमें संगीत, कला के प्रति रुचि होती है तथा वे शिक्षिका का कार्य बखूबी कर सकती हैं। 

कृत्तिका के प्रथम चरण में जन्मी जातिकाएं उच्च अध्ययन में सफल होती हैं तथा प्रशासक, चिकित्सक, इंजीनियर आदि भी बन सकती हैं। कृत्तिका नक्षत्र में जन्मी जातिकाओं का वैवाहिक जीवन पूर्णतः सुखी नहीं रह पाता। 

पति से विलगाव या कभी-कभी प्रजनन क्षमता की हीनता भी इसका एक कारण हो सकती है। 

कृत्तिका के विभिन्न चरणों के स्वामी इस प्रकार हैं: प्रथम एवं चतुर्थ चरण- गुरु, द्वितीय एवं तृतीय चरण-शनि।


क्रमशः... आगे के लेख मे रोहिणी नक्षत्र के विषय मे विस्तार से वर्णन किया जाएगा।

पंडारामा प्रभु राज्यगुरु ज्योतिषी 

Thursday, May 22, 2025

अश्विनी नक्षत्र में जन्मी जातिकाये मासिक कालाष्टमी

अश्विनी नक्षत्र में जन्मी जातिकाये मासिक कालाष्टमी 20 मई नियम एवं विधि


अश्विनी नक्षत्र में जन्मी जातिकाये :


अश्विनी नक्षत्र को सम्पूर्ण मेष राशि का प्रतिनिधित्व करने वाला नक्षत्र माना गया है। 





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मेष राशि का स्वामित्व मंगल को दिया गया है। 'जातक पारिजात' में कहा गया है।

अश्विनी नक्षत्र में जन्मी जातिकाओं में प्रायः उपरोक्त चारित्रिक विशेषताएं होती हैं। 

अश्विनी नक्षत्र में जन्मी जातिकाओं के व्यक्तित्व में एक चुम्बकीय आकर्षण होता है। 

जातकों की तुलना में उनके नेत्र मीन की भांति छोटे एवं चमकीले होते हैं।



अश्विनी नक्षत्र में जातिकाएं धैर्यवान, शुद्ध हृदय और मीठी वाणी की धनी होती हैं। 

वे परंपराप्रिय, बड़ों का आदर करने वाली तथा विनम्र भी होती हैं। 

ऐसी जातिकाओं में काम भावना कुछ प्रबल पायी जाती है।

ऐसी जातिकाएं यदि अच्छी शिक्षा या जाएं तो वे एक कुशल प्रशासक भी बन सकती हैं। 

लेकिन वे परिवार के लिए अपनी नौकरी त्यागने में भी नहीं हिचकतीं। 

परिवार का कल्याण, उसका सुख ही उनकी प्राथमिकता होती है।



विवाह कहा गया है कि ऐसी जातिकाओं का विवाह तेइस वर्ष के बाद ही करना चाहिए अन्यथा दीर्घ अवधि के लिए पति से विछोह या तलाक अथवा पति के चिरवियोग के भी फल बताये गये हैं।

संतानः ऐसी जातिकाओं को पुत्रों की अपेक्षा पुत्रियां अधिक होती हैं। 

वे अपनी संतान का पर्याप्त श्रेष्ठ रीति से पालन-पोषण करती हैं। 

एक फल यह कहा गया है कि यदि अश्विनी के चतुर्थ चरण में स्थित शुक्र पर चंद्रमा की दृष्टि पड़े अर्थात् चंद्रमा तुला राशि में हो तो संतानें तो अधिक होती हैं, पर बच कम पाती हैं।

स्वास्थ्यः ऐसी जातिकाओं का स्वास्थ्य प्रायः ठीक ही रहता है। 



जो भी व्याधियां होती हैं वे अनावश्यक चिता एवं मानसिक अशाति के कारण।

 ऐसी स्थिति निरंतर बनी रहने पर मस्तिष्क विकार की भी आशंका प्रबल रहती है। 

ऐसी जातिकाओं को रसोई घर में भोजन बनाते वक्त आग से कुछ ज्यादा सावधान रहने की चेतावनी भी दी जाती है। 

वे शीघ्र ही दुर्घटनाग्रस्त भी हो सकती हैं।

क्रमशः... 

आगे के लिख मे हम भरणी नक्षत्र के के जातको से जुड़े शुभाशुभ पहलुओं के विषय मे चर्चा करेंगे।


मासिक कालाष्टमी 20 मई नियम एवं विधि 


कालाष्टमी हिंदू त्योहार है जो भगवान भैरव को समर्पित है और हर हिंदू चंद्र माह में 'कृष्ण पक्ष अष्टमी तिथि' (चंद्रमा के घटते चरण के दौरान 8वें दिन) पर मनाया जाता है।


' पूर्णिमा ' ( पूर्णिमा ) के बाद ' अष्टमी तिथि ' ( 8 वां दिन ) भगवान काल भैरव को प्रसन्न करने के लिए सबसे उपयुक्त दिन माना जाता है। 

इस दिन हिंदू भक्त भगवान भैरव की पूजा करते हैं और उन्हें प्रसन्न करने के लिए व्रत रखते हैं। 

एक वर्ष में कुल 12 कालाष्टमी मनाई जाती हैं।


इनमें से 'मार्गशीर्ष' माह में पड़ने वाली जयंती सबसे महत्वपूर्ण है और इसे 'कालभैरव जयंती' के नाम से जाना जाता है । 

कालाष्टमी रविवार या मंगलवार को पड़ने पर भी अधिक पवित्र मानी जाती है, क्योंकि ये दिन भगवान भैरव को समर्पित हैं।


कालाष्टमी पर भगवान भैरव की पूजा का पर्व देश के विभिन्न हिस्सों में पूरे उत्साह और भक्ति के साथ मनाया जाता है।


कालाष्टमी व्रत का नियम


आदरणीय प्यारे मित्रों तथा गुरुजनों.... इससे पहले मैं एक पोस्ट किया था...की "मासिक कालाष्टमी व्रत रखने वाला मनुष्य भैरव जी का विशेष कृपापात्र होता है । 

किसीभी प्रकार का भैरवमंत्र उसके लिए सिद्धिप्रद रहता है ।" 


मासिक कालाष्टमी पालन हेतु सर्वप्रथम गंगा नदी अथवा किसी पवित्र नदी में इसके अभाव में कहीं पर भी शुद्ध जल में स्नान करलें । 

उसके पश्चात या तो किसी भैरव मंदिर में जाकर या फिर घर में भैरव जी के नाम से अखंडित सुपारी स्थापित करके । 

पूजन से पहले अपना नाम गोत्र किस क्षेत्र में रहते हैं आदि बोलते हुए..... कहिए कि है प्रभु मैं आज अमुक महीना की कृष्ण पक्ष की अष्टमी तिथि... में... आप श्री भैरवपरमात्मा देवता की प्रसन्नता हेतु आशीर्वाद प्राप्ति हेतु अखंड उपवास युक्त व्रत का संकल्प लेता हूं ।

( गर्भवती, बालक, वृद्ध,तथा क्षुधातुर "अखंड उपवास युक्त व्रत" ना बोलकर "श्री भैरव प्रसाद समेत नक्तव्रत" वोलें )  । 

हालांकि कहीं-कहीं पर यह अवश्य लिखा गया है कि "नक्तव्रत" यानी कि दिनभर उपवास रहकर अगर रात्रि में भोजन करेंगे तो.... दिनभर उपवास रहना अनिवार्य हो जाता है । 

पर वर्तमान की स्थिति परिस्थिति आदि को देखकर मैं आप लोगों को यह सुझाव दे रहा हूं कि.... अगर आप दिनभर उपवास नहीं रह पाते हैं तो एक काम कीजिए जो भी फल आप लाए होंगे उसे सबको आप भैरव जी को भोग के रूप में चढ़ा दीजिएगा..... तथा भोजन के रूप में नहीं अपितु भोग के रूप में उसे ग्रहण कर लीजिएगा । 

इस प्रकार आपका संकल्प भी नहीं टूटेगा । 

और आप दुर्बल भी नहीं हो जाएंगे । 

सुबह के समय मध्यान्ह काल में तथा रात्रि काल में भैरव जी का नाना विध उपचार से पूजन करने के पश्चात.... उन्हें भोग अवश्य लगाएं। 

सुबह के समय विभिन्न प्रकार के खाने योग्य फल आदि को भोग के रूप में अर्पित करें । 

मध्यान्न काल में भी फल का ही भोग लगाएं । 

रात्रि काल में पूड़ी , आटे तथा गुड से बनी पदार्थ , उड़द की दाल तथा गुड़ से बनी पदार्थ, आदि का भोग लगाएं। 

रात्रि काल में भोग अर्पित करने से पूर्व कांसे की पात्र में नारियल का जल डालकर उस पात्र में एक जायफल डाल दें.... तथा इसे भैरव जी को अर्पित कर दें । 

भोग लगाने के बात... जो जो चीजें आप भोग लगाए हैं... उसे प्रेम पूर्वक प्रसाद के रूप में सेवन करें । 

अखंड दीपक प्रज्वलन पूर्वक रात भर जाग्रत रहें । 

रात्रि जापन के बाद सुबह प्रातः काल भैरव जी का साधारण पूजन करें । 

अन्य सामग्री जिसे आप पहले पूजन किए थे उन सबको इकट्ठा करके किसी बहते हुए जल राशि में प्रवाहित कर दें । 

अखंडित सुपारी को जिन्हे आप भैरव जी के स्वरूप मानकर पूजन किए थे.... उन्हें भी वेहते हुए जल राशि में प्रवाहित कर दें। 

आने वाले अगले महीने के कृष्ण पक्ष अष्टमी तिथि में फिर इसी भांति कालाष्टमी का परिपालन करें।


कालाष्टमी के दौरान अनुष्ठान


कालाष्टमी भगवान शिव के अनुयायियों के लिए एक महत्वपूर्ण दिन है। 

इस दिन भक्त सूर्योदय से पहले उठते हैं और जल्दी स्नान करते हैं। 

वे काल भैरव का दिव्य आशीर्वाद पाने और अपने पापों के लिए क्षमा मांगने के लिए उनकी विशेष पूजा करते हैं।


भक्त शाम के समय भगवान काल भैरव के मंदिर भी जाते हैं और वहां विशेष पूजा - अर्चना करते हैं। ऐसा माना जाता है कि कालाष्टमी भगवान शिव का रौद्र रूप है। 

उनका जन्म भगवान ब्रह्मा के ज्वलंत क्रोध और क्रोध को समाप्त करने के लिए हुआ था।


कालाष्टमी पर सुबह के समय मृत पूर्वजों के लिए विशेष पूजा और अनुष्ठान भी किए जाते हैं।


भक्त पूरे दिन कठोर उपवास भी रखते हैं। 

कुछ कट्टर भक्त पूरी रात जागकर रात्रि जागरण करते हैं और महाकालेश्वर की कहानियाँ सुनकर अपना समय व्यतीत करते हैं। 

कालाष्टमी व्रत का पालन करने वाले को समृद्धि और खुशी का आशीर्वाद मिलता है और उसे अपने जीवन में सभी सफलताएं प्राप्त होती हैं।


काल भैरव कथा का पाठ करना और भगवान शिव के मंत्रों का जाप करना शुभ माना जाता है।


कालाष्टमी के दिन कुत्तों को खाना खिलाने का भी रिवाज है क्योंकि काले कुत्ते को भगवान भैरव का वाहन माना जाता है। 

कुत्तों को दूध, दही और मिठाई खिलाई जाती है।


काशी जैसे हिंदू तीर्थ स्थानों पर ब्राह्मणों को भोजन कराना अत्यधिक फलदायी माना जाता है।


कालाष्टमी का महत्व


कालाष्टमी की महिमा 'आदित्य पुराण' में बताई गई है। 

कालाष्टमी पर पूजा के मुख्य देवता भगवान काल भैरव हैं जिन्हें भगवान शिव का स्वरूप माना जाता है।


हिंदी में 'काल' शब्द का अर्थ 'समय' है जबकि 'भैरव' का अर्थ 'शिव की अभिव्यक्ति' है। 

इसलिए काल भैरव को 'समय का देवता' भी कहा जाता है और भगवान शिव के अनुयायियों द्वारा पूरी भक्ति के साथ उनकी पूजा की जाती है।


हिंदू किंवदंतियों के अनुसार, एक बार ब्रह्मा, विष्णु और महेश के बीच बहस के दौरान ब्रह्मा द्वारा की गई एक टिप्पणी से भगवान शिव क्रोधित हो गए। 

फिर उन्होंने 'महाकालेश्वर' का रूप धारण किया और भगवान ब्रह्मा का 5वां सिर काट दिया।


तभी से देवता और मनुष्य भगवान शिव के इस रूप को 'काल भैरव' के रूप में पूजते हैं। 

ऐसा माना जाता है कि जो लोग कालाष्टमी पर भगवान शिव की पूजा करते हैं वे भगवान शिव का उदार आशीर्वाद चाहते हैं।


यह भी प्रचलित मान्यता है कि इस दिन भगवान भैरव की पूजा करने से व्यक्ति के जीवन से सभी कष्ट, दर्द और नकारात्मक प्रभाव दूर हो जाते हैं।


🌼संक्षिप्त भैरव साधना🌼

मंत्र संग्रह पूर्व-पीठिका


मेरु-पृष्ठ पर सुखासीन, वरदा देवाधिदेव शंकर से !!

पूछा देवी पार्वती ने, अखिल विश्व-गुरु परमेश्वर से !

जन-जन के कल्याण हेतु, वह सर्व-सिद्धिदा मन्त्र बताएँ !!


जिससे सभी आपदाओं से साधक की रक्षा हो, वह सुख पाए !

शिव बोले, आपद्-उद्धारक मन्त्र, स्तोत्र  मैं बतलाता,

देवि ! पाठ जप कर जिसका, है मानव सदा शान्ति-सुख पाता !!


                !! ध्यान !!


सात्विकः-

बाल-स्वरुप वटुक भैरव-स्फटिकोज्जवल-स्वरुप है जिनका,

घुँघराले केशों से सज्जित-गरिमा-युक्त रुप है जिनका,

दिव्य कलात्मक मणि-मय किंकिणि नूपुर से वे जो शोभित हैं !

भव्य-स्वरुप त्रिलोचन-धारी जिनसे पूर्ण-सृष्टि सुरभित है !

कर-कमलों में शूल-दण्ड-धारी का ध्यान-यजन करता हूँ !

रात्रि-दिवस उन ईश वटुक-भैरव का मैं वन्दन करता हूँ !!


राजसः-

नवल उदीयमान-सविता-सम, भैरव का शरीर शोभित है,

रक्त-अंग-रागी, त्रैलोचन हैं जो, जिनका मुख हर्षित है !

नील-वर्ण-ग्रीवा में भूषण, रक्त-माल धारण करते हैं !

शूल, कपाल, अभय, वर-मुद्रा ले साधक का भय हरते हैं !

रक्त-वस्त्र बन्धूक-पुष्प-सा जिनका, जिनसे है जग सुरभित,

ध्यान करुँ उन भैरव का, जिनके केशों पर चन्द्र सुशोभित !!


तामसः-

तन की कान्ति नील-पर्वत-सी, मुक्ता-माल, चन्द्र धारण कर,

पिंगल-वर्ण-नेत्रवाले वे ईश दिगम्बर, रुप भयंकर !

डमरु, खड्ग, अभय-मुद्रा, नर-मुण्ड, शुल वे धारण करते,

अंकुश, घण्टा, सर्प हस्त में लेकर साधक का भय हरते !

दिव्य-मणि-जटित किंकिणि, नूपुर आदि भूषणों से जो शोभित,

भीषण सन्त-पंक्ति-धारी भैरव हों मुझसे पूजित, अर्चित !!


!! तांत्रोक्त भैरव कवच !!


ॐ सहस्त्रारे महाचक्रे कर्पूरधवले गुरुः !

पातु मां बटुको देवो भैरवः सर्वकर्मसु !!

पूर्वस्यामसितांगो मां दिशि रक्षतु सर्वदा !

आग्नेयां च रुरुः पातु दक्षिणे चण्ड भैरवः !!

नैॠत्यां क्रोधनः पातु उन्मत्तः पातु पश्चिमे !

वायव्यां मां कपाली च नित्यं पायात् सुरेश्वरः !!

भीषणो भैरवः पातु उत्तरास्यां तु सर्वदा !

संहार भैरवः पायादीशान्यां च महेश्वरः !!

ऊर्ध्वं पातु विधाता च पाताले नन्दको विभुः !

सद्योजातस्तु मां पायात् सर्वतो देवसेवितः !!

रामदेवो वनान्ते च वने घोरस्तथावतु !

जले तत्पुरुषः पातु स्थले ईशान एव च !!

डाकिनी पुत्रकः पातु पुत्रान् में सर्वतः प्रभुः !

हाकिनी पुत्रकः पातु दारास्तु लाकिनी सुतः !!

पातु शाकिनिका पुत्रः सैन्यं वै कालभैरवः !

मालिनी पुत्रकः पातु पशूनश्वान् गंजास्तथा !!

महाकालोऽवतु क्षेत्रं श्रियं मे सर्वतो गिरा !

वाद्यम् वाद्यप्रियः पातु भैरवो नित्यसम्पदा !!


!! भैरव वशीकरण मन्त्र !!


“ॐनमो रुद्राय, कपिलाय, भैरवाय, त्रिलोक- नाथाय, ॐ ह्रीं फट् स्वाहा ”

“ॐ भ्रां भ्रां भूँ भैरवाय स्वाहा। ॐ भं भं भं अमुक-मोहनाय स्वाहा ”

“ॐ नमो काला गोरा भैरुं वीर, पर-नारी सूँ देही सीर ! 

गुड़ परिदीयी गोरख जाणी, गुद्दी पकड़ दे भैंरु आणी, गुड़, रक्त का धरि ग्रास, कदे न छोड़े मेरा पाश ! 

जीवत सवै देवरो, मूआ सेवै मसाण ! 

पकड़ पलना ल्यावे ! 

काला भैंरु न लावै, तो अक्षर देवी कालिका की आण ! 

फुरो मन्त्र, ईश्वरी वाचा !”


ॐ भैरवाय नम: !!*

ॐ हं षं नं गं कं सं खं महाकाल भैरवायनम:!

ॐ ह्रीं बटुकाय आपदुद्धारणाचतु य कुरु कुरु बटुकाय ह्रीं ॐ !!


ॐ ह्रीं वां बटुकाये क्षौं क्षौं आपदुद्धाराणाये कुरु कुरु बटुकाये ह्रीं बटुकाये स्वाहा !!


!! श्री स्वर्णाकर्षण भैरव स्तोत् !!


विनियोग -

 ॐ अस्य श्रीस्वर्णाकर्षणभैरव महामंत्रस्य श्री महाभैरव ब्रह्मा ऋषिः , त्रिष्टुप्छन्दः , त्रिमूर्तिरूपी भगवान स्वर्णाकर्षणभैरवो देवता, ह्रीं बीजं , सः शक्तिः, वं कीलकं मम् दारिद्रय नाशार्थे विपुल धनराशिं स्वर्णं च प्राप्त्यर्थे जपे विनियोगः !!


      अब बाए हाथ मे जल लेकर दाहिने हाथ की उंगलियों को जल से स्पर्श करके मंत्र मे दिये हुए शरीर के स्थानो पर स्पर्श करे !!


!! ऋष्यादिन्यास !!


श्री महाभैरव ब्रह्म ऋषये नमः शिरसि !

त्रिष्टुप छ्न्दसे नमः मुखे !

श्री त्रिमूर्तिरूपी भगवान

स्वर्णाकर्षण भैरव देवतायै नमः ह्रदिः !

ह्रीं बीजाय नमः गुह्ये !

सः शक्तये नमः पादयोः !

वं कीलकाय नमः नाभौ !

मम् दारिद्रय नाशार्थे विपुल धनराशिं

स्वर्णं च प्राप्त्यर्थे जपे विनियोगाय नमः सर्वांगे !


मंत्र बोलते हुए दोनो हाथ के उंगलियों को आग्या चक्र पर स्पर्श करे ! 

अंगुष्ठ का मंत्र बोलते समय दोनो अंगुष्ठ से आग्या चक्र पर स्पर्श करना है !!


!! करन्यास !!


ॐ अंगुष्ठाभ्यां नमः !

ऐं तर्जनीभ्यां नमः !

क्लां ह्रां मध्याभ्यां नमः !

क्लीं ह्रीं अनामिकाभ्यां नमः !

क्लूं ह्रूं कनिष्ठिकाभ्यां नमः !

सं वं करतलकरपृष्ठाभ्यां नमः !

अब मंत्र बोलते हुए दाहिने हाथ से मंत्र मे कहे गये शरीर के भाग पर स्पर्श करना है !!


!! हृदयादि न्यास !!


आपदुद्धारणाय हृदयाय नमः !

अजामल वधाय शिरसे स्वाहा !

लोकेश्वराय शिखायै वषट् !

स्वर्णाकर्षण भैरवाय कवचाय हुम् !

मम् दारिद्र्य विद्वेषणाय नेत्रत्रयाय वौषट् !

श्रीमहाभैरवाय नमः अस्त्राय फट् !

रं रं रं ज्वलत्प्रकाशाय नमः इति दिग्बन्धः !!


      अब दोनो हाथ जोड़कर ध्यान करे !!

( ध्यान मंत्र का  उच्चारण करें !!

 जिसका हिन्दी में सरलार्थ नीचे दिया गया है ! वैसा ही आप भाव करें )


ॐ पीतवर्णं चतुर्बाहुं त्रिनेत्रं पीतवाससम् !

अक्षयं स्वर्णमाणिक्य तड़ित-पूरितपात्रकम् !!

अभिलसन् महाशूलं चामरं तोमरोद्वहम् !

सततं चिन्तये देवं भैरवं सर्वसिद्धिदम् !!


मंदारद्रुमकल्पमूलमहिते माणिक्य सिंहासने, संविष्टोदरभिन्न चम्पकरुचा देव्या समालिंगितः !

भक्तेभ्यः कररत्नपात्रभरितं स्वर्णददानो भृशं, स्वर्णाकर्षण भैरवो विजयते स्वर्णाकृति : सर्वदा !!


हिन्दी भावार्थ :- श्रीस्वर्णाकर्षण भैरव जी मंदार ( सफेद आक ) के नीचे माणिक्य के सिंहासन पर बैठे हैं ! उनके वाम भाग में देवि उनसे समालिंगित हैं ! 

उनकी देह आभा पीली है तथा उन्होंने पीले ही वस्त्र धारण किये हैं ! 

उनके तीन नेत्र हैं ! 

चार बाहु हैं जिन्में उन्होंने स्वर्ण - माणिक्य से भरे हुए पात्र, महाशूल, चामर तथा तोमर को धारण कर रखा है ! 

वे अपने भक्तों को स्वर्ण देने के लिए तत्पर हैं। 

ऐसे सर्वसिद्धिप्रदाता श्री स्वर्णाकर्षण भैरव का मैं अपने हृदय में ध्यान व आह्वान करता हूं उनकी शरण ग्रहण करता हूं ! 

आप मेरे दारिद्रय का नाश कर मुझे अक्षय अचल धन समृद्धि और स्वर्ण राशि प्रदान करे और मुझ पर अपनी कृपा वृष्टि करें।

मानसोपचार पुजन के मंत्रो को मन मे बोलना है !


!! मानसोपचार पूजन !!


लं पृथिव्यात्मने गंधतन्मात्र प्रकृत्यात्मकं गंधं श्रीस्वर्णाकर्षण भैरवं अनुकल्पयामि नम: !

हं आकाशात्मने शब्दतन्मात्र प्रकृत्यात्मकं पुष्पं श्रीस्वर्णाकर्षण भैरवं अनुकल्पयामि नम: !

यं वायव्यात्मने स्पर्शतन्मात्र प्रकृत्यात्मकं धूपं श्रीस्वर्णाकर्षण भैरवं अनुकल्पयामि नम: !

रं वह्न्यात्मने रूपतन्मात्र प्रकृत्यात्मकं दीपं श्रीस्वर्णाकर्षण भैरवं अनुकल्पयामि नम: !

वं अमृतात्मने रसतन्मात्र प्रकृत्यात्मकं अमृतमहानैवेद्यं श्रीस्वर्णाकर्षण भैरवं अनुकल्पयामि नम: !

सं सर्वात्मने ताम्बूलादि सर्वोपचारान् पूजां श्रीस्वर्णाकर्षण भैरवं अनुकल्पयामि नम: !!


!! मंत्र !!


ॐ ऐं क्लां क्लीं क्लूं ह्रां ह्रीं ह्रूं स: वं आपदुद्धारणाय अजामलवधाय लोकेश्वराय स्वर्णाकर्षण भैरवाय मम् दारिद्रय विद्वेषणाय ॐ ह्रीं महाभैरवाय नम: !!


मंत्र जाप के बाद स्तोत्र का एक पाठ अवश्य करे !!


!! श्री स्वर्णाकर्षण भैरव स्त्रोत् !!


!! श्री मार्कण्डेय उवाच !!


भगवन् ! प्रमथाधीश ! शिव-तुल्य-पराक्रम !

पूर्वमुक्तस्त्वया मन्त्रं, भैरवस्य महात्मनः !!

इदानीं श्रोतुमिच्छामि, तस्य स्तोत्रमनुत्तमं !

तत् केनोक्तं पुरा स्तोत्रं, पठनात्तस्य किं फलम् !!

तत् सर्वं श्रोतुमिच्छामि, ब्रूहि मे नन्दिकेश्वर !!


!! श्री नन्दिकेश्वर उवाच !!


इदं ब्रह्मन् ! महा-भाग, लोकानामुपकारक !

स्तोत्रं वटुक-नाथस्य, दुर्लभं भुवन-त्रये !!

सर्व-पाप-प्रशमनं, सर्व-सम्पत्ति-दायकम् !

दारिद्र्य-शमनं पुंसामापदा-भय-हारकम् !!

अष्टैश्वर्य-प्रदं नृणां, पराजय-विनाशनम् !

महा-कान्ति-प्रदं चैव, सोम-सौन्दर्य-दायकम् !!

महा-कीर्ति-प्रदं स्तोत्रं, भैरवस्य महात्मनः !

न वक्तव्यं निराचारे, हि पुत्राय च सर्वथा !!

शुचये गुरु-भक्ताय, शुचयेऽपि तपस्विने !

महा-भैरव-भक्ताय, सेविते निर्धनाय च !!

निज-भक्ताय वक्तव्यमन्यथा शापमाप्नुयात् !

स्तोत्रमेतत् भैरवस्य, ब्रह्म-विष्णु-शिवात्मनः !!

श्रृणुष्व ब्रूहितो ब्रह्मन् ! सर्व-काम-प्रदायकम् !!


!! विनियोग !!


ॐ अस्य श्रीस्वर्णाकर्षण-भैरव-स्तोत्रस्य ब्रह्मा ऋषिः, अनुष्टुप् छन्दः, श्रीस्वर्णाकर्षण-भैरव-देवता, ह्रीं बीजं, क्लीं शक्ति, सः कीलकम्, मम-सर्व-काम-सिद्धयर्थे पाठे विनियोगः !!


!! ध्यान !!


मन्दार-द्रुम-मूल-भाजि विजिते रत्नासने संस्थिते !

दिव्यं चारुण-चञ्चुकाधर-रुचा देव्या कृतालिंगनः !!

भक्तेभ्यः कर-रत्न-पात्र-भरितं स्वर्ण दधानो भृशम् !

स्वर्णाकर्षण-भैरवो भवतु मे स्वर्गापवर्ग-प्रदः !!


!! स्त्रोत् -पाठ !!


ॐ नमस्तेऽस्तु भैरवाय, ब्रह्म-विष्णु-शिवात्मने !

नमः त्रैलोक्य-वन्द्याय, 

वरदाय परात्मने !!

रत्न-सिंहासनस्थाय, दिव्याभरण-शोभिने !

नमस्तेऽनेक-हस्ताय, 

ह्यनेक-शिरसे नमः !

नमस्तेऽनेक-नेत्राय, 

ह्यनेक-विभवे नमः !!

नमस्तेऽनेक-कण्ठाय, 

ह्यनेकान्ताय ते नमः !

नमोस्त्वनेकैश्वर्याय, 

ह्यनेक-दिव्य-तेजसे !!

अनेकायुध-युक्ताय, 

ह्यनेक-सुर-सेविने !

अनेक-गुण-युक्ताय, 

महा-देवाय ते नमः !!

नमो दारिद्रय-कालाय, महा-सम्पत्-प्रदायिने !

श्रीभैरवी-प्रयुक्ताय, 

त्रिलोकेशाय ते नमः !!

दिगम्बर ! नमस्तुभ्यं, 

दिगीशाय नमो नमः !

नमोऽस्तु दैत्य-कालाय, 

पाप-कालाय ते नमः !!

सर्वज्ञाय नमस्तुभ्यं, 

नमस्ते दिव्य-चक्षुषे !

अजिताय नमस्तुभ्यं, 

जितामित्राय ते नमः !

नमस्ते रुद्र-पुत्राय, 

गण-नाथाय ते नमः !

नमस्ते वीर-वीराय, 

महा-वीराय ते नमः !!

नमोऽस्त्वनन्त-वीर्याय, 

महा-घोराय ते नमः !

नमस्ते घोर-घोराय, 

विश्व-घोराय ते नमः !!

नमः उग्राय शान्ताय, 

भक्तेभ्यः शान्ति-दायिने !

गुरवे सर्व-लोकानां, 

नमः प्रणव-रुपिणे !!

नमस्ते वाग्-भवाख्याय, 

दीर्घ-कामाय ते नमः !

नमस्ते काम-राजाय, 

योषित्कामाय ते नमः !!

दीर्घ-माया-स्वरुपाय, 

महा-माया-पते नमः !

सृष्टि-माया-स्वरुपाय, 

विसर्गाय सम्यायिने !!

रुद्र- लोकेश- पूज्याय, 

ह्यापदुद्धारणाय च !

नमोऽजामल- बद्धाय, 

सुवर्णाकर्षणाय ते !!

नमो नमो भैरवाय, 

महा-दारिद्रय-नाशिने !

उन्मूलन-कर्मठाय, 

ह्यलक्ष्म्या सर्वदा नमः !!

नमो लोक-त्रेशाय, 

स्वानन्द-निहिताय ते !

नमः श्रीबीज-रुपाय, सर्व-काम-प्रदायिने !!

नमो महा-भैरवाय, 

श्रीरुपाय नमो नमः !

धनाध्यक्ष ! नमस्तुभ्यं, 

शरण्याय नमो नमः !!

नमः प्रसन्न-रुपाय, 

ह्यादि-देवाय ते नमः !

नमस्ते मन्त्र-रुपाय, 

नमस्ते रत्न-रुपिणे !!

नमस्ते स्वर्ण-रुपाय, 

सुवर्णाय नमो नमः !

नमः सुवर्ण-वर्णाय, 

महा-पुण्याय ते नमः !!

नमः शुद्धाय बुद्धाय, 

नमः संसार-तारिणे !

नमो देवाय गुह्याय, 

प्रबलाय नमो नमः !!

नमस्ते बल-रुपाय, 

परेषां बल-नाशिने !

नमस्ते स्वर्ग-संस्थाय, 

नमो भूर्लोक-वासिने !!

नमः पाताल-वासाय, 

निराधाराय ते नमः !

नमो नमः स्वतन्त्राय, 

ह्यनन्ताय नमो नमः !!

द्वि-भुजाय नमस्तुभ्यं, भुज-त्रय-सुशोभिने !

नमोऽणिमादि-सिद्धाय, 

स्वर्ण-हस्ताय ते नमः !!

पूर्ण-चन्द्र-प्रतीकाश-

वदनाम्भोज-शोभिने !

नमस्ते स्वर्ण-रुपाय, स्वर्णालंकार-शोभिने !!

नमः स्वर्णाकर्षणाय, 

स्वर्णाभाय च ते नमः !

नमस्ते स्वर्ण-कण्ठाय, स्वर्णालंकार-धारिणे !!

स्वर्ण-सिंहासनस्थाय, 

स्वर्ण-पादाय ते नमः !

नमः स्वर्णाभ-पाराय, स्वर्ण-काञ्ची-सुशोभिने !!

नमस्ते स्वर्ण-जंघाय, भक्त-काम-दुघात्मने !

नमस्ते स्वर्ण-भक्तानां, कल्प-वृक्ष-स्वरुपिणे !!

चिन्तामणि-स्वरुपाय, नमो ब्रह्मादि-सेविने !

कल्पद्रुमाधः-संस्थाय, बहु-स्वर्ण-प्रदायिने !!

भय-कालाय भक्तेभ्यः, सर्वाभीष्ट-प्रदायिने !

नमो हेमादि-कर्षाय, 

भैरवाय नमो नमः !!

स्तवेनानेन सन्तुष्टो, 

भव लोकेश-भैरव !

पश्य मां करुणाविष्ट, 

शरणागत-वत्सल !

श्रीभैरव धनाध्यक्ष, 

शरणं त्वां भजाम्यहम् !

प्रसीद सकलान् कामान्, 

प्रयच्छ मम सर्वदा !!


!! फल-श्रुति !!


श्रीमहा-भैरवस्येदं, स्तोत्र सूक्तं सु-दुर्लभम् !

मन्त्रात्मकं महा-पुण्यं, सर्वैश्वर्य-प्रदायकम् !!

यः पठेन्नित्यमेकाग्रं, पातकैः स विमुच्यते !

लभते चामला-लक्ष्मीमष्टैश्वर्यमवाप्नुयात् !!

चिन्तामणिमवाप्नोति, धेनुं कल्पतरुं ध्रुवम् !

स्वर्ण-राशिमवाप्नोति, सिद्धिमेव स मानवः !!

संध्याय यः पठेत्स्तोत्र, दशावृत्त्या नरोत्तमैः !

स्वप्ने श्रीभैरवस्तस्य, साक्षाद् भूतो जगद्-गुरुः !

स्वर्ण-राशि ददात्येव, तत्क्षणान्नास्ति संशयः !

सर्वदा यः पठेत् स्तोत्रं, भैरवस्य महात्मनः !!

लोक-त्रयं वशी कुर्यात्, अचलां श्रियं चाप्नुयात् !

न भयं लभते क्वापि, विघ्न-भूतादि-सम्भव !!

म्रियन्ते शत्रवोऽवश्यम लक्ष्मी-नाशमाप्नुयात् !

अक्षयं लभते सौख्यं, सर्वदा मानवोत्तमः !!

अष्ट-पञ्चाशताणढ्यो, मन्त्र-राजः प्रकीर्तितः !

दारिद्र्य-दुःख-शमनं, स्वर्णाकर्षण- कारकः !!

य येन संजपेत् धीमान्, स्तोत्र वा प्रपठेत् सदा !

महा-भैरव-सायुज्यं, स्वान्त-काले भवेद् ध्रुवं !!


!! श्री भैरव चालीसा !!

!! दोहा !!


श्री गणपति, गुरु गौरि पद, प्रेम सहित धरि माथ !

चालीसा वन्दन करों, श्री शिव भैरवनाथ !!

श्री भैरव संकट हरण, मंगल करण कृपाल !

श्याम वरण विकराल वपु, लोचन लाल विशाल !!


जय जय श्री काली के लाला !

जयति जयति काशी- कुतवाला !!


जयति बटुक भैरव जय हारी !

जयति काल भैरव बलकारी !!


जयति सर्व भैरव विख्याता !

जयति नाथ भैरव सुखदाता !!


भैरव रुप कियो शिव धारण !

भव के भार उतारण कारण !!


भैरव रव सुन है भय दूरी !

सब विधि होय कामना पूरी !!


शेष महेश आदि गुण गायो ! 

काशी-कोतवाल कहलायो !!


जटाजूट सिर चन्द्र विराजत !

बाला, मुकुट, बिजायठ साजत !!


कटि करधनी घुंघरु बाजत !

दर्शन करत सकल भय भाजत !!


जीवन दान दास को दीन्हो !

कीन्हो कृपा नाथ तब चीन्हो !!


वसि रसना बनि सारद-काली !

दीन्यो वर राख्यो मम लाली !!


धन्य धन्य भैरव भय भंजन !

जय मनरंजन खल दल भंजन !!


कर त्रिशूल डमरु शुचि कोड़ा !

कृपा कटाक्ष सुयश नहिं थोड़ा !!


जो भैरव निर्भय गुण गावत !

अष्टसिद्घि नवनिधि फल पावत !!


रुप विशाल कठिन दुख मोचन !

क्रोध कराल लाल दुहुं लोचन !!


अगणित भूत प्रेत संग डोलत ! 

बं बं बं शिव बं बं बोतल !!


रुद्रकाय काली के लाला !

महा कालहू के हो काला !!


बटुक नाथ हो काल गंभीरा !

श्वेत, रक्त अरु श्याम शरीरा !!


करत तीनहू रुप प्रकाशा !

भरत सुभक्तन कहं शुभ आशा !!


रत्न जड़ित कंचन सिंहासन !

व्याघ्र चर्म शुचि नर्म सुआनन !!


तुमहि जाई काशिहिं जन ध्यावहिं !

विश्वनाथ कहं दर्शन पावहिं !!


जय प्रभु संहारक सुनन्द जय !

जय उन्नत हर उमानन्द जय !!


भीम त्रिलोकन स्वान साथ जय !

बैजनाथ श्री जगतनाथ जय !!


महाभीम भीषण शरीर जय !

रुद्र त्र्यम्बक धीर वीर जय !!


अश्वनाथ जय प्रेतनाथ जय !

श्वानारुढ़ सयचन्द्र नाथ जय !!


निमिष दिगम्बर चक्रनाथ जय !

गहत अनाथन नाथ हाथ जय !!


त्रेशलेश भूतेश चन्द्र जय !

क्रोध वत्स अमरेश नन्द जय !!

श्री वामन नकुलेश चण्ड जय !

कृत्याऊ कीरति प्रचण्ड जय !!


रुद्र बटुक क्रोधेश काल धर !

चक्र तुण्ड दश पाणिव्याल धर !!


करि मद पान शम्भु गुणगावत !

चौंसठ योगिन संग नचावत !!


करत कृपा जन पर बहु ढंगा !

काशी कोतवाल अड़बंगा !!


देयं काल भैरव जब सोटा !

नसै पाप मोटा से मोटा !!


जाकर निर्मल होय शरीरा !

मिटै सकल संकट भव पीरा !!


श्री भैरव भूतों के राजा !

बाधा हरत करत शुभ काजा !!


ऐलादी के दुःख निवारयो !

सदा कृपा करि काज सम्हारयो !!


सुन्दरदास सहित अनुरागा !

श्री दुर्वासा निकट प्रयागा !!


श्री भैरव जी की जय लेख्यो !

सकल कामना पूरण देख्यो !!


!! दोहा !!


जय जय जय भैरव बटुक, स्वामी संकट टार !

कृपा दास पर कीजिये, शंकर के अवतार !!

जो यह चालीसा पढ़े, प्रेम सहित सत बार !

उस घर सर्वानन्द हों, वैभव बड़े अपार !!


!! आरती श्री भैरव जी की !!


जय भैरव देवा, प्रभु जय भैरव देवा !

जय काली और गौरा देवी कृत सेवा !! जय !!

तुम्हीं पाप उद्घारक दुःख सिन्धु तारक !

भक्तों के सुख कारक भीषण वपु धारक !! जय !!

वाहन श्वान विराजत कर त्रिशूल धारी !

महिमा अमित तुम्हारी जय जय भयहारी !! जय !!

तुम बिन देवा सेवा सफल नहीं होवे !

चौमुख दीपक दर्शन दुःख खोवे !! जय !!

तेल चटकि दधि मिश्रित भाषा वलि तेरी !

कृपा करिये भैरव करिए नहीं देरी !! जय !!

पांव घुंघरु बाजत अरु डमरु जमकावत !

बटुकनाथ बन बालकजन मन हरषावत !! जय !!

बटकुनाथ की आरती जो कोई नर गावे !

कहे धरणीधर नर मनवांछित फल पावे !! जय !!


!! साधना यंत्र !!


      श्री बटुक भैरव का यंत्र लाकर उसे साधना के स्थान पर भैरव जी के चित्र के समीप रखें ! दोनों को लाल वस्त्र बिछाकर उसके ऊपर यथास्थिति में रखें ! चित्र या यंत्र के सामने माला, फूल, थोड़े काले उड़द चढ़ाकर उनकी विधिवत पूजा करके लड्डू का भोग लगाएं !!


!! साधना का समय !!


       इस साधना को किसी भी मंगलवार या मंगल विशेष भैरवाष्टमी के दिन आरम्भ करना चाहिए शाम 7 से 10 बजे के बीच नित्य 41 दिन करने से अभीष्ट सिद्धि प्राप्त होती है !!


!! साधना की चेतावनी !!


 साधना के दौरान खान-पान शुद्ध रखें !!

 सहवास से दूर रहें ! वाणी की शुद्धता रखें और किसी भी कीमत पर क्रोध न करें !!

 यह साधना किसी गुरु से अच्छे से जानकर ही करें !!


!! साधना नियम व सावधानी !!


1 :-  यदि आप भैरव साधना किसी मनोकामना के लिए कर रहे हैं तो अपनी मनोकामना का संकल्प बोलें और फिर साधना शुरू करें !!


2 :- यह साधना दक्षिण दिशा में मुख करके की जाती है !!


3 :-  रुद्राक्ष या हकीक की माला से मंत्र जप किया जाता है !!


4 :-  भैरव की साधना रात्रिकाल में ही करें !!


5 :-  भैरव पूजा में केवल तेल के दीपक का ही उपयोग करना चाहिए !!


6 :-  साधक लाल या काले वस्त्र धारण करें !!


7 :-  हर मंगलवार को लड्डू के भोग को पूजन- साधना के बाद कुत्तों को खिला दें और नया भोग रख दें !!


पंडारामा प्रभु राज्यगुरू 

( द्रविड़ ब्राह्मण )

राजयोग देते हैं सर्वसुख और जीवन के प्रशिक्षक हैं ये तीनों :

सभी ज्योतिष मित्रों को मेरा निवेदन हे आप मेरा दिया हुवा लेखो की कोपी ना करे में किसी के लेखो की कोपी नहीं करता,  किसी ने किसी का लेखो की कोप...